भारत में पर्यावरण आंदोलन

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भारत में पर्यावरण आंदोलन जल,जंगल और जमीन को बचाने के संघर्ष से जुड़े हैं। ये आंदोलन आधुनिक विकास के मॉडल का बेहरत विकल्प भी पेश करते हैं, जो विकास के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण भी प्रदान करता है। लोगों के परम्परागत अधिकारों की रक्षा करता है। इन आंदोलनों ने जन आंदोलनों का रूप ग्रहण कर लिया है, जिसमें आम जनता खासकर महिलाओं तथा युवकों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। भारत में पर्यावरण आंदोलन गांधी जी के अहिंसा और सत्याग्रह पर आधारित रहे हैं। ये पर्यावरण आंदोलन पर्यावरण विनाश तथा संसाधनों के असमान वितरण को समाप्त कर एक पर्यावरणीय लोकतंत्र स्थापित करने का प्रयास हैं।

टिहरी बांध विरोधी आंदोलन

टिहरी बांध उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में भागीरथी और भिलंगना नदी पर बना विश्व का पांचवा सर्वाधिक ऊँचा बांध है। इस परियोजना का सुंदरलाल बहुगुणा समेत अनेक पर्यावरणविदों ने विरोध किया है। विशेषज्ञों का मानना है कि टिहरी बांध ‘गहन भूकम्पीय सक्रियता’ के क्षेत्र में आता है और अगर रियेक्टर पैमाने पर 8 की तीव्रता से भूकंप आया तो टिहरी बांध के टूटने का खतरा उत्पन्न हो सकता है। ऐसा हुआ तो उत्तरांचल सहित अनेक मैदानी इलाके डूब जाएंगे। टिहरी बांध विरोधी आंदोलन ने इस परियोजना से क्षेत्र के पर्यावरण, ग्रामीण जीवन शैली, वन्यजीव, कृषि तथा लोक-संस्कृति को होने वाली क्षति की ओर लोगों का ध्यान आकृर्षित किया है।

चिलका बचाओ आंदोलन

चिलका उड़ीसा मेें स्थित एशिया की सबसे बड़ी खारे पानी की झील है। चिलका 158 प्रकार के प्रवासी पक्षियों तथा चीते की महत्त्वपूर्ण प्रजातियों का निवास स्थान है। यह 192 गांवों की आजीविका का भी साधन है। सन 1986 में तट्टकालीन जेबी पटनायक सरकार ने निर्णय लिया कि चिलका में 1400 हेक्टेयर झींगा प्रधान क्षेत्र को टाटा ट्टाथा उड़ीसा सरकार की संयुक्त कम्पनी को पट्टे पर दिया जाऐगा। उस समय इस निर्णय का विरोध मछवारों के साथ-साथ विपक्षी राजनीतिक पार्टी जनता दल ने भी किया। लेकिन 1989 में जनता दल के सत्ता में आने पर स्थिति फिर बदल गई। 1991 में जनता दल की सरकार ने चिलका के झींगा प्रधान क्षेत्र के विकास के लिए टाटा कंपनी को संयुक्त क्षेत्र कंपनी बनाने के लिए आमंत्रित किया। इस प्रकार सन 1991 में एक संघर्ष ने जन्म लिया। चिलका के 192 गांवों के मछुआरों ने ‘मट्टसय महासंघ’ के अन्तर्गत एकजुट होकर अपने अधिकारों की लड़ाई शुरू की। 1992 में चिलका क्षेत्र की जनता ने चिलका बांध को तोडऩा शुरू किया। अंतत: उड़ीया सरकार ने दिसम्बर, 1992 को टाटा को दिये गये पट्टे के अधिकार को रद्द कर दिया। इस प्रकार चिलका बचाओ आंदोलन सफल हुआ।

शांत घाटी

केरल की शांत घाटी अपनी घनी जैवविविधता के लिए मशहूर है। केरल सरकार द्वारा 1980 में यहाँ कुंतीपूंझ नदी पर कुंदरेमुख परियोजना के अंतर्गत 200 मेगाबाट बिजली निर्माण हेतु बांध का प्रस्ताव रखा गया। इस परियोजना का वैज्ञानिकों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं तथा क्षेत्रिय लोगों ने विरोध किया। इनका मानना था कि इससे इस क्षेत्र के फूलों, पौधों तथा लुप्त होने वाली प्रजातियों को खतरा है। यह सदियों पुरानी संतुलित पारिस्थितिकी को भारी हानि पहुँचा सकता है। भरी जनदबाव में अंततः राज्य सरकार को इस परियोजना को स्थगित करना पड़ा।

अप्पिको आन्दोलन

वनों और वृक्षों की रक्षा के लिए ‘चिपको’ आंदोलन का योगदान सर्वविदित है। इसने भारत के अन्य भागों में भी अपना प्रभाव दिखाया। उत्तर का यह चिपको आंदोलन दक्षिण में ‘अप्पिको’ आंदोलन के रूप में उभरकर सामने आया। अप्पिको कन्नड़ भाषा का शब्द है जो कन्नड़ में चिपको का पर्याय है। पर्यावरण संबंधी जागरुकता का यह आंदोलन अगस्त, 1983 में कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ क्षेत्र में शुरू हुआ। यह आंदोलन पूरे जोश से लगातार 38 दिन तक चलता रहा। 1983 में सलकानी तथा निकट के गांवों से युवा तथा महिलाओं ने पास के जंगलों तक 5 मील की यात्रा तय करके वहाँ के पेड़ों को गले लगाया। उन्होने राज्य के वन विभाग के आदेश से कट रहे पेड़ों की कटाई रुकवाई। उन्होंने कहा कि हम व्यापारिक प्रायोजनों के लिए पेड़ों को बिल्कुल भी नहीं कटने देंगे और पेड़ों से चिपककर बोले कि पेड़ काटने हैं तो पहले हमारे ऊपर कुल्हाड़ी चलाओ। अंततः सरकार पेड़ों की कटाई रुकवाने का आदेश देने के लिए मजबूर हुई।

नर्मदा बचाओ आंदोलन

नर्मदा बचाओ आंदोलन नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध परियोजना के विरुद्ध शुरू हुआ था। नर्मदा परियोजना को समृद्धि तथा विकास का सूचक माना जा रहा है वहीं दूसरी ओर इससे तीन राज्यों की 37000 हेक्टेयर भूमि जलमग्न होने, और 248 गांव के एक लाख से अधिक लोग विस्थापित होने का भी खतरा था। इस परियोजना के विरोध ने जल्द ही जन आंदोलन का रूप ले लिया। शुरू में आंदोलन का उद्देश्य बांध को रोककर पर्यावरण विनाश तथा इससे लोगों के विस्थापन को रोकना था। बाद में आंदोलन का उद्देश्य बांध के कारण विस्थापित लोगों को सरकार द्वारा दी जा रही राहत कार्यों की देख-रेख तथा उनके अधिकारों के लिए न्यायालय में जाना बन गया।

नर्मदा बचाओ आन्दोलन में कई समाजसेवियों, पर्यावरणविदों, छात्रों, महिलाओं, आदिवासियों, किसानों तथा मानव अधिकार कार्यकर्ताओं का एक संगठित समूह बना। इसके मुख्य कार्यकताओंं में मेधा पाटेकर के अलावा अनिल पटेल, बुकर सम्मान से नवाजी गयी अरुणधती रॉय, बाबा आम्टे आदि शामिल हैं। संपूर्ण परिवेश में देखें तो नर्मदा बचाओ आंदोलन सफल रहा है।

चिपको आंदोलन

चिपको आंदोलन मूलत: उत्तराखण्ड के वनों की सुरक्षा के लिए स्थानीय लोगों द्वारा 1970 के दशक में आरम्भ किया गया आंदोलन है। इसमें लोगों ने पेड़ों केा गले लगा लिया ताकि उन्हें कोई काट न सके। यह आलिंगन दर असल प्रकृति और मानव के बीच प्रेम का प्रतीक बना और इसे “चिपको ” की संज्ञा दी गई।

चिपको आंदोलन का मूल केंद्र रेनी गांव (जिला चमोली) था। वन विभाग ने इस क्षेत्र के अंगू के 2451 पेड साइमंड कंपनी को ठेके पर दिये थे। इसकी खबर मिलते ही चंडी प्रसाद भट्ट के नेत्तट्टव में 14 फरवरी, 1974 को एक सभा की गई जिसमें लोगों को चेताया गया कि यदि पेड गिराये गये, तो हमारा अस्तितव खतरे में पड जायेगा। इस सभा के बाद 15 मार्च को गांव वालों ने रेनी जंगल की कटाई के विरोध में जुलूस निकाला। ऐसा ही जुलूस 24 मार्च को विद्यार्थियों ने भी निकाला। महिलाओं ने बिना जान की परवाह किये रेनी में श्रीमती गौरादेवी के नेतृट्टव में चिपको-आंदोलन शुरू कर दिया। चिपको आंदोलन कई मामलों में सफल रहा। देश के लिए वन्य नीति निर्धारण की दिशा में इस क्षेत्रीय विवाद ने एक राष्ट्रीय  स्वरूप ले लिया। चिपको आंदोलन भी गांधीवादी संघर्ष का ही एक रूप था। इस आंदोलन को वास्तविक नेतृत्व भी गांधीवांदी कार्यकर्ताओं मुख्यत: चंडीप्रसाद भट्ट और सुंदर लाल बहुगुणा से मिला।

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