(पवन सिंह)
यशराज बैनर तले कुछ साल पहले एक फिल्म आई थी उसका नाम था- "साथियां"
म्युजिक था-A. R. Rahman का और Lyricist श्री Gulzar
साहेब और आवाज दी थी मेरी मित्र Richa Sharma ने...गीत यूं है-Chhalka chhalka re o aankh ka Paani...
Maiya bole jaana nahin bhaiya bole maana nahin
Babul bole bas ek din kal ka chhalka
मुझे नहीं पता था इस गीत का पानी उत्तर प्रदेश सूचना एवं जनसंपर्क विभाग पर टपक जायेगा। अब इस गीत के बोल बदल देते हैं--
छलका रे छलका रे बजट का पानी...इसके बाद गीत की पूरी लाइनों का सार यह है कि भरपूर बजट वाले सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में बजट की बूंद-बूंद टपकन ने मीडिया मार्केटिंग से जुड़े लोगों की "छुछ्छी टाइट" कर रखी है...पुराना बकाया किसी ब्लाक हुए ड्रेनेज की तरह निकाला जा रहा है...नया विज्ञापन जिस जोर-शोर से मिलना चाहिए था वह मिल नहीं रहा...ऊपर से दिल्ली में बैठे चैनलों और बड़े अखबारों के आका बिजनेस के लिए हंटर चलाये हुए हैं....!! इधर गाने की एक लाइन से उम्मीद पाले मार्केटिंग वाले-Maiya bole jaana nahin.....(धैर्य रखो विज्ञापन मिलेगा) Babul bole bas ek din kal ka chhalka...(लेकिन बजट है कि शासन में बैठे "बाबुल" उसे आज कल आज-कल..ड्रापर से पोलियो की दो बूंद जिंदगी की तरह टपका रहे हैं।
शासन स्तर से पूरे सूचना विभाग को गजब का झुनझुना बना दिया गया है। शासन स्तर पर विभागीय बजट के खर्च को लेकर बेहद ही कन्फ्यूजन की स्थिति बनी हुई है। इस समूचे कन्फ्यूजन की स्थिति यह हो चली है कि राज्य सरकार द्वारा जिन जनहितकारी योजनाओं का व्यापक प्रचार-प्रसार होना चाहिए था सब लगभग ठप्प पड़ा है। शासन स्तर पर यह धारणा बनी हुई है कि बजट अनाप-शनाप खर्च हो रहा है लिहाजा उसकी समीक्षा होनी चाहिए...बेशक बजट की समीक्षा होनी चाहिए लेकिन यह समीक्षा हर हफ्ते..हर पखवाड़े, हर महीने या हर छह महीने पर होनी चाहिए या साल में एक बार....?? यह कौन तय करेगा..?? अगर शासन स्तर पर बजटीय खर्च की समीक्षा करना है तो क्या कोई स्थाई फार्मेट बनाकर सूचना विभाग को दिया गया है कि इसे रोज का रोज कम्प्यूटर पर टैली में फ़ीड किया जाए।
मसलन प्रिंट को हफ्ते में कितना विज्ञापन गया..उसका आर ओ नंबर, जारी करने की तिथि, आर ओ में दर्ज राशि, प्रकाशित होने का विवरण, भुगतान का विवरण, अगर ऐजेंसियों से गया है तो विवरण...ठीक इसी तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, आऊटडोर आदि का कोई निर्धारित प्रोफार्मा क्या शासन स्तर से जारी किया गया है? चूंकि ऐसा कोई सेट प्रोफार्मा है नहीं और जब शासन को जमुहाई आती है वह बजट के खर्चे का विवरण मांग लेता है। इसके बाद होता यह है कि सूचना विभाग का हर अंग-प्रत्यंग "एमडीएच की दागी मिर्च" के तड़के की तरह लाल हो जाता है। सब काम बंद और "खर्चा जोड़ जल्दी भेज अभियान" शुरू....। अब जब खर्चा पानी बनाकर विभाग शासन को भेजता है तो कहा जाता है "ऐसे" "नहीं वैसे" बना कर भेजो..!!!?? मतलब हालत यह है कि शासन स्तर पर चाहिए सब कुछ .....लेकिन विगत दो सालों में सूचना विभाग के विभिन्न सेक्शनों के लिए एक सेट प्रोफार्मा तक नहीं बनाया जा सका है।
इसका नतीजा हो यह रहा है कि सूचना एवं जनसंपर्क विभाग जिसे मुख्यमंत्री की जिन योजनाओं का प्रचार प्रसार पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए था, वह बजटीय लफड़ा निपटाने में लगा रहता है। इधर दिल्ली के मीडिया हाऊस मार्केटिंग के लोगों की लगातार "बोरिंग" करते रहते हैं और मार्केटिंग वाले सूचना विभाग की लिफ्ट से छठवीं मंजिल से ग्राउंड तक ऊपर-नीचे "झूलिम-झूला" करते रहते हैं।
भाजपा के एक वरिष्ठ नेता हैं, उनका भी एक अखबार निकलता है...प्रिंट लाइन में सीधे उनके नाम से नहीं बाईपास (किसान पथ टाइप्स) नाम से...कहते हैं---"कुछ न कुछ साजिश जरूर चल रहा है। बजट भरपूर बा लेकिन परचार शून्य बा"..... फिलहाल सूचना विभाग के इस "बजट रोको एपीसोड" की चर्चा अब पार्टी मुख्यालय में भी शुरू हो चुकी है.... फिलहाल अभी ये गाना सुनिए और लोकभवन के भीतर गुनगुनाते हुए---
Babul bole bas ek din kal ka chhalka...(मल्लब बजट)
Uttar Pradesh Information and Public Relations Department : वो कौन, जो नहीं चाहता मुख्यमंत्री की पब्लिसिटी..!!
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