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(पवन सिंह)

आखिरकार वो कौन ताकतवर है जो सीधे उत्तर प्रदेश सरकार की जनहित योजनाओं का प्रचार-प्रसार रोक रहा है? वो कौन सी ताकत है जो ये नहीं चाहती कि महाराज की लोकप्रियता और उनकी नीतियों को आम जनता तक पहुंचाया जाए। लोकसभा चुनाव आचार संहिता लागू होने के एक माह पहले ही किस मंशा से पब्लिसिटी के बजट का प्रवाह लगभग शून्य कर दिया गया? जबकि यही वक्त वह था जब सरकारें अपनी जनहितकारी योजनाओं का जबरदस्त प्रचार व प्रदर्शन करती हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में ऐसा क्यों नहीं हो पाया? आखिरकार कौन है इस षड्यंत्र के पीछे जो शकुनि की तरह पासे फेंक रहा है...?

सरकार के पास पर्याप्त बजट है, प्रचार-प्रसार के साधन हैं, पब्लिसिटी के प्रत्येक प्लेट फार्म पर सरकार की जबरदस्त पकड़ है लेकिन इस मजबूत पकड़ को आखिरकार कौन पंचर कर रहा है? जब कि सूचना एवं जनसंपर्क विभाग सीधे-सीधे मुख्यमंत्री के अधीनस्थ है..फिर ऐसी हिमाकत किसकी है..!!! क्यों है..!!!...किस लिए है...!!! मंशा क्या है...!!! यह विभाग में और विभाग के बाहर मीडिया में चर्चा का विषय है।

एक रिटायर्ड वरिष्ठ आईएएस अधिकारी कहते हैं कि-"इस विभाग की कार्य संस्कृति प्रदेश के अन्य सभी विभागों की कार्य संस्कृति से एकदम अलहदा है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि सूचना विभाग में बजट की (कृत्रिम) कमी के चलते अखबारों, न्यूज चैनल्स, पत्रिकाओं, पोर्टलों, न्यूज ऐजेंसियों के भुगातन व उनको विज्ञापन रिलीज को रोका गया हो। ऐसा क्यों हो रहा है इस बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता लेकिन जो हो रहा है वह ठीक नहीं है। सूचना विभाग बहुत ही प्रतिष्ठित विभाग रहा है। विभाग की लाइब्रेरी कभी प्रदेश की बहुत ही सम्पन्न लाइब्रेरी हुआ करती थी। विभाग की मासिक पत्रिकाओं की इतनी प्रतिष्ठा थी कि बड़े-बड़े साहित्यकार उनके प्रकाशन की प्रतीक्षा करते थे। पूरे उत्तर भारत में सूचना विभाग ही ऐसा एकमात्र विभाग था जिसके पास 1972 में एरी जैसा प्रोफशनल कैमरा और उसकी फुल यूनिट थी। यह वह दौर था जब फिल्म पाकीजा का शूट चल रहा था। फिल्म शतरंज की एडिटिंग तक इसी सूचना विभाग की चारदीवारी में हुई थी। फिर धीरे-धीरे सूचना विभाग से पुराने लोग रिटायर हुए और आज सूचना विभाग यहां तक आ गया। ...अब शासन स्तर पर यहां क्या चल रहा है मैं नहीं कह सकता लेकिन जो हो रहा है वह अच्छा नहीं है। बजट को लेकर शासन स्तर पर कोई खींच-तान नहीं होनी चाहिए क्योंकि इस विभाग से सीधे मीडिया जुड़ा है और खबरें बाहर आती हैं।"

विभागीय सूत्रों के अनुसार सूचना विभाग में सूचीबद्ध न्यूज पोर्टल्स से विगत वर्षों में व्यापक प्रचार प्रसार कराया गया लेकिन जब भुगतान की बारी आई तो तमाम तरह के ऐसे नियम कानून थोप दिए गये  जिससे भुगतान होने की स्थिति ही न बन सकी। सूचना निदेशालय द्वारा कई बार बार भुगतान के संबंध में फाइलें चलाई गईं लेकिन शासन में बैठे जिम्मेदारों ने बार-बार फाइलों के हाथ-पांव तोड़ दिए और फाइलों को लंगड़ा करके वापस विभाग को भेज दिया। जब कि न्यूज पोर्टल की एक बहुत बड़ी पाठक संख्या है। इसके पीछे शासन में बैठे जिम्मेदारों की क्या मंशा है देर सबेर सबके सामने आ ही जायेगा लेकिन तब तक "बजटम-सजटम स्वाहा" टाइप्स की आहुतियां सरकार की लोकहितार्थ योजनाओं की हवा निकालती रहेंगी...
(जारी...)
 

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