
भारत खासतौर से पंजाब और हरियाणा में लोहड़ी का त्यौहार लोग बड़ी ही धूम धाम से मनाते हैं। हर्ष और उल्लास के इस त्यौहार पर हुड़दंग भी खूब होती है। नृत्य और गीत होते हैं। इसके लिए काफी पहले से तैयारियां शुरू हो जाती हैं। शहर और गांव के शरारती बच्चे दूसरे मोहल्ले की लोहड़ी की आग निकाल कर अपने गांव या मोहल्ले की लोहड़ी में डाल देते हैं। इसे ही लोहड़ी व्याहना कहते हैं। इस दौरान आपस में छीना झपटी भी खूब होती है। कभी-कभी आपस में सिर फुटौवल भी हो जाती है।
चूँकि दूसरे गांव या मौहल्ले की लोहड़ी से जलती लकड़ी को अपने गांव या मोहल्ले की लोहड़ी में डालना काफी शुभ भी माना जाता है। इसलिए लड़के यह काम जरूर करते हैं, फिर इस काम में रोमांच भी होता है। लोहड़ी व्याहने की परंपरा आजकल लगभग सभी जगहों पर होती है। इसमें बच्चे, बड़े और बुजुर्ग सभी बढ़ चढ़कर हिस्सा भी लेते हैं।
अब जहां पर हर्ष और उल्लास होगा वहां पर हास-परिहास होगा ही। लोहडी का त्यौहार हर्ष और उल्लास का है। लोहड़ी व्यहाने की परंपरा हर्ष का अतिरेक है। इस तरह की परंपराएं भारत के अधिकाँश पर्वों और शादी-व्याह में हास-परिहास के साथ निभाई जाती हैं। महिलायें गाली जाती हैं। इसी तरह से लोहड़ी व्यहाने की परंपरा से भी त्योहार की रौनक और भी अधिक बढ़ जाती है। इसे उसी तरह बुरा नहीं माना जाता जिस तरह से होली के अवसर पर एक-दूसरे पर व्यंग करने या कबीर बोलने पर बुरा नहीं माना जाता। इससे गांवों व मुहल्लों के संबंध आपस में और मधुर होते हैं।
लोहड़ी व्यहाने की परंपरा की शुरुआत कब से हुई, इस बारे में स्पष्ट तौर पर तो कुछ नहीं कहा जा सकता। जनश्रुतियों के अनुसार लोहड़ी व्यहाने की परंपरा इस त्यौहार के प्रारंभ होने के साथ ही हुई। लोहड़ी चूँकि शिव और सती से जुड़ा पर्व है, इसलिए कहा जाता है कि भगवान् शिव और माता सती के विवाह के अवसर पर घरातियों और बरातियों में खूब हास-परिहास हुआ था। इसलिए इस पर्व के साथ भी हास-परिहास के रूप में लोहड़ी व्यहाने की परंपरा भी जुड़ गई। कुछ लोगों का कहना है कि त्रेता युग में भगवान्श्री कृष्ण के समय लोहड़ी पर लोहड़ी व्यहाने की परंपरा की शुरुआत हुई।
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