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नई दिल्ली ।। यूपी विधानसभा हो या लोकसभा चुनाव, पूर्वांचल की भूमिका सबसे दमदार होती है। दल कोई हो, नेता कोई हो, पूर्वांचल को कोई भी नकार नहीं सकता। इतिहास गवाह है कि पूर्वाचल में जिस भी पार्टी को जनता का समर्थन मिला वही सत्ता के सिंहासन पर काबिज हुआ।

पिछले सारे रिकार्ड खंगाल लें, हर चुनाव में पूर्वांचल ने ही सत्ता का सुख दिलाया है, चाहे वह कांग्रेस रही हो या भारतीय जनता पार्टी। कम से कम आम चुनाव में तो यही होता आ रहा है। इस बात से इत्तिफाक रखते हुए ही इस दफा भी सियासी दलों खास तौर पर महागठबंधन भी इसी समीकरण पर रणनीति तैयार करने में जुटा है।

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पूर्वांचल को साधने के लिहाज से कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बसपा के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर मंथन शुरू हो गए हैं। महागठबंधन के सहयोगियों के बीच सीटों का तालमेल बहुत कुछ 2009 पर आधारित होगा,क्योंकि 2014 में तो विपक्ष पूरी तरह से धराशाई हो गया था।

वैसे 2009 को आधार बनाया जाएगा तो तीनों ही दलों के बीच जमकर रस्साकसी है। कारण पूर्वांचल की 21 सीटों के 2009 के परिणाम पर गौर फरमाया जाए तो तीनों दलों के बीच बहुत ज्यादा अंतर नहीं है।

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यह दीगर है कि 2014 की बात की जाए तो सपा बीस छूटेगी। ऐसे में अब देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस, सपा और बसपा के बीच सीटों का तालमेल कसे होता है, किसे कितनी सीटें मिलती हैं।

राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि 2009 से लेकर अभी तक बसपा का ग्राफ अन्य दलों की अपेक्षा कहीं ज्यादा नीचे गिरा है। इस लिहाज से जब सीटों के बंटावारे मंथन होगा तो सपा का पलड़ा भारी रहेगा। कारण पूर्वांचल की सियासत में सपा ने ज्यादातर सीटों पर बसपा को मात दी है।

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लोकसभा चुनाव 2014 में पीएम नरेन्द्र मोदी की लहर के चलते बसपा एक भी सीट नहीं मिली थी। वहीं सपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव व उनके परिजनों ने किसी तरह पांच सीटों पर विजय हासिल की थी।

गोरखपुर व फूलपुर उपचुनाव में भी सपा को जीत मिली है। ऐसे में इन सीटों पर अब सपा का दावा पक्का है। ऐसे में महागठबंधन में इस पर ज्यादा गौर फरमाया जाएगा कि सपा को कहां-कहां बसपा से अधिक वोट मिले थे, ऐसी सभी सीटों पर सपा अपना दावा करेगी जबकि मजबूती से लड़ने वाली सीटों पर बसपा अपना दावा पेश करेगी।

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2014 के नतीजों की बात करें तो पीएम नरेन्द्र मोदी के संसदीय सीट बनारस में कांग्रेस मोदी, अरविंद केजरीवाल के बाद कांग्रेस थी तो चौथे नंबर पर बसपा और पांचवें पर सपा। वहीं चंदौली, आजगढ़, गोरखपुर, फूलपुर, गाजीपुर, लालगंज, बलिया, गोरखपुर, सलेमपुर, डुमरियागंज व बस्ती में सपा, बसपा से आगे रही थी।

इनसे अलग बनारस के अलावा बासगांव, मऊ, देवरिया, संतकबीर नगर, कुशीनगर व महराजगंजइसी क्रम में इन सीटों पर बसपा को सपा से अधिक मत मिले थे। अब अगर सपा-बसपा के साथ कांग्रेस को जोड़ा जाए तो 2014 से अब तक के सीटों के लिहाज से सीटों का बंटवारा और कठिन होगा।

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आंकड़ों से साफ है जाता है कि जिन सीटों पर सपा व बसपा एक-दूसरे से आगे रहते हैं और वही सीट उन्हें मिलती है तो सबसे अधिक नुकसान बसपा को उठाना पड़ेगा। बसपा सुप्रीमो मायावती ऐसा होने नहीं देंगी। कारण जिन सीटों पर बसपा को सपा से कम वोट मिले हैं उन सीटों को छोडऩा सपा के लिए आसान नहीं होगा।

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो महागठबंधन बनने की सूरत में अगर 2009 के लोकसभा परिणाम को आधार बनाया जाता है तो लगभग-लगभग बराबर-बराबर की दावेदारी होगी। कारण साफ है कि सपा, कांग्रेस और बसपा के बीच एक-दो सीटों का ही अंतर रहा था तब।

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आंकड़े बताते हैं कि तब 21 में से सर्वाधिक आठ सीट बसपा को, सात सपा और छह सीट कांग्रेस को मिली थी। ऐसे में फिलहाल राजनीतिक विश्लेषकों का अनुमान है कि 2009 में जीती सीटें किसी भी सूरत में कोई भी पार्टी छोड़ना नहीं चाहेगी।

वैसे भी इन तीनों में राष्ट्रीय दल का दर्जा हासिल करने वाली सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस है तो बसपा को भी राष्ट्रीय दल का दर्जा हासिल है। ऐसे में सपा ही है जिसे क्षेत्रीय दल के रूप में पहचान है फिलहाल। इस लिहाज से भी तीनों के बीच पांच से आठ सीटों के बीच ही बंटवारा होगा।

इस पर किसी को कोई खास एतराज नहीं होना चाहिए। वैसे भी अखिलेश यादव कांग्रेस को पहले ही नसीहत दे चुके हैं कि बड़े लक्ष्य हासिल करने के लिए कुछ बड़ा दिल करना भी जरूरी है।

साभार- पत्रिका

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