क्या मो-शा के चक्कर में RSS एक्सपोज़ हुआ है..?

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(पवन सिंह)
ये लेख लिखते हुए मुझे फिल्म दबंग का एक गीत याद आ रहा है..."मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए.." ये गीत क्या आरएसएस पर सटीक बैठता है? ...मो-शा द्वारा संचालित मनमाने शासन ने क्या संघ के अब तक के किए-कराए पर पानी फेर दिया है? मेरा मानना है हां..। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस ने तथाकथित तथ्यों, थ्योरियों के सहारे नेहरू, गांधी, पटेल, सुभाष और भगतसिंह पर गढे़ और खड़े किए गये कथित किस्सों से जिस तरह अपनी ताकत में इजाफा किया था, क्या वह अब उसी के लिए चुनौती बनते जा रहे हैं? क्या RSS का तथाकथित राष्ट्रवाद जो हिटलर की विचारधारा की जिराक्स मात्र है और जिसे गोलवलकर की किताब "बंच आफ थाट" में पिरोया गया, उसकी हवा निकलनी शुरू हो चुकी है? आजादी के 75 सालों में ऐसा पहली बार हुआ है कि RSS और उसके प्रसारित तथाकथित राष्ट्रवाद पर अब लोगों ने जबरदस्त टिप्पणियां करनी आरंभ कर दी हैं। RSS‌ पर अब लोग खुलकर सवाल उठाने लग गये‌ हैं। अमूमन होता यह था कि आम लोग आरएसएस जैसे संगठनों पर‌ कम ही टीका-टिप्पणी किया करते थे लेकिन अब इस राष्ट्रवादी संगठन पर लोग खुलकर बोलने लगे हैं और संघ की आजादी की लड़ाई में जो भूमिका रही है, वह अब सामने ही नहीं आई बल्कि अब वह सार्वजनिक बहस में आ गई है। अब बहस हो रही है कि क्या Rss के लोगों ने अंग्रेजों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई को कमजोर करने की कोशिश की थी? संघ आखिरकार भारतीय संविधान को क्यों प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर नकारता रहा है? आखिरकार संघ ने आजादी के  50 सालों बाद नागपुर मुख्यालय में क्यों तिरंगा फहराया? संघ कार्यालय पर तिरंगा फहराने वालों को नागपुर जिला अदालत ने  कुछ साल पहले ही निर्दोष बरी किया है।
तीन मुख्य आरोपियों को प्रथम श्रेणी न्यायाधीश आर.आर. लोहिया की अदालत ने बाबा मेंढे, रमेश कलंबे, दिलीप छत्तानी को बाइज्जत बरी कर दिया। इन तीनों ने 26 जनवरी 2001 की सुबह बाबा मेंढे के नेतृत्व में संघ कार्यालय पर तिरंगा फहराया था। तिरंगा फहराने के आरोप में कोतवाली पुलिस ने भादंवि कि धारा 143, 148, 323, 448, 504, 506 ब और 149 के तहत मामला दर्ज कर तीनों को गिरफ्तार किया था। प्रथम श्रेणी न्यायाधीश आर.आर. लोहिया की अदालत ने सबूत के अभाव में तीनों को 11 साल बाद बरी कर दिया। मो-शा ने जब ज्यादा राष्ट्रवाद मथना शुरू किया तो यह मामला भी सार्वजनिक पटल पर आ गया कि 1948 में तिरंगे को पैरों तले कैसे रौंदा गया था! लोगों ने सवाल पूछने शुरू कर दिए और यह भी सवाल पूछा कि आरएसएस के मुख्यालय पर 2003 तक कभी भी तिरंगा झंडा नहीं फहराया गया था क्यों? 2003  से पहले कुछ युवा तिरंगा लेकर चल पड़े थे और उन्होंने ऐलान किया था कि वे आरएसएस के नागपुर मुख्यालय पर भी तिरंगा झंडा फहरा देगें‌ रास्ते में उन पर  लाठियां बरसाई गयी थी?  लोग सवाल पूछ रहे हैं कि उस वक़्त के तिरंगे से क्यों चिढ़ी हुई थी?  इतिहासकार रामचंद्र गुहा का एक लेख अखबार द हिन्दू में छपा था-"उन्होंने सवाल किया था कि बीजेपी आज क्यों इतनी ज्यादा राष्ट्रप्रेम की बात करती है। खुद ही उन्होंने जवाब का भी अंदाज़ लगाया था कि शायद इसलिए कि बीजेपी की मातृ संस्‍था आरएसएस ने आज़ादी की लड़ाई में कभी हिस्सा नहीं लिया था। 1930 और 1940 के दशक में जब आज़ादी की लड़ाई पूरे उफान पर थी तो आरएसएस का कोई भी आदमी या सदस्य उसमें शामिल नहीं हुआ था.श।  यहाँ तक कि जहां भी तिरंगा फहराया गया आरएसएस वालों ने कभी उसे सैल्यूट तक नहीं किया‌। आरएसएस ने हमेशा ही भगवा झंडे को तिरंगे से ज्यादा महत्व दिया।  30 जनवरी, 1948 को जब महात्मा गाँधी की हत्‍या कर दी गयी तो इस तरह की खबरें आई थीं कि  आरएसएस के लोग तिरंगे झंडे को पैरों से रौंद रहे थे। यह खबर उन दिनों के अखबारों में खूब छपी थीं।  आज़ादी के संग्राम में शामिल लोगों को आरएसएस की इस हरकत से बहुत तकलीफ हुई थी। उनमें जवाहरलाल नेहरू भी एक थे।  24 फरवरी को उन्होंने अपने एक भाषण में अपनी पीड़ा को व्यक्त किया था  उन्होंने कहा कि खबरें आ रही हैं कि आरएसएस के सदस्य तिरंगे का अपमान कर रहे हैं। उन्हें मालूम होना चाहिए कि राष्ट्रीय झंडे का अपमान करके वे अपने आपको देशद्रोही साबित कर रहे हैं।" RSS को मन से आखिरकार भारतीय ध्वज स्वीकार क्यों नहीं है? RSS का सरसंघचालक आखिर दलित या ओबीसी क्यों नहीं बन सकता? क्या यह उच्च वर्ग का एक संगठन मात्र है? महिलाएं संघ के पदों पर क्यों नहीं?... RSS ने कड़ी मेहनत और मशक्कत के बाद अपनी जो छवि चमकाई थी, उसकी कलई क्या उतर रही है?...अमूमन लोग यानी आम जनता RSS पर टिप्पणी नहीं किया करती थी लेकिन अब सोशल मीडिया पर संघ को लेकर लंबी-चौड़ी बहस होने लगी है। संघ को लेकर मींम्स या चुटकलेबाजी नहीं हुआ करती थी लेकिन अब होने लगी है। इसलिए मैं यह लिख रहा हूं कि क्या संघ एक्सपोज़ हो रहा है? 
मेरा अपना तर्क है कि ज्यों-ज्यों देश की अर्थव्यवस्था और चरमराएगी, रोजी-रोजगार की दशा और भी निचले पायदान पर पहुंचेगी, कृषि और कृषकों की बदहाली और बढ़ेगी, चंद पूंजीपति अपने हाथ मुल्क की आवाज़ और उसकी गर्दन पर ज्यों-ज्यों और कसेंगे, अराजकता का एक भयावह दौर आरंभ होगा....संघ और संघ द्वारा अपरोक्ष रूप से संचालित सत्ताओं के खिलाफ लोग और ज्यादा मुखर होंगे। मेरा अपना तर्क है कि तथाकथित हिन्दुत्व और तथाकथित राष्ट्रवाद ...ये दोनों तेजी से एक्सपोज़ हो रहे हैं? अब सवाल उठने लगे हैं कि पाकिस्तान के मामले में राष्ट्रवाद जाग्रत किया जाता है और चीन जो विगत कुछ सालों में भारत की सीमाओं का भूगोल बदल चुका है, उस पर संघ की खामोशी गहरे सवाल खड़ी करती है। गलवान घाटी में शहीद हुए 20 जवानों की शहादत के 24 घंटे बाद ही चीन से बड़ी आर्थिक मदद ली गई, जिसे आप गूगल पर सर्च करके पढ़ सकते हैं। संघ इस पर ख़ामोश क्यों रहा? संघ पुलवामा पर ख़ामोश क्यों है, जबकि वह अपने को सदैव भारतीय सेना के साथ खड़ा दिखाता है?...कुछ माह पहले मैंने अपने एक लेख में जिक्र किया था कि सरदार पटेल को संघ ने बड़ी ही चालाकी से झूठ का मुलम्मा चढ़ाकर  नेहरू के खिलाफ खड़ा किया। सरदार के भाषणों के वे अंश प्रचारित किए जो संघ को सूट करते थे और शेष कुतर दिए...संघ ने तथाकथित राष्ट्रवादी सावरकर को महिमान्वित किया लेकिन अब इसकी भी पोल खुल गई। गांधी की हत्या के मामले में संघ न कभी खुलकर समर्थन में आया न विरोध में... संदिग्ध चुप्पी साध ली गई!!... सावरकर ने आजाद हिन्द फौज में नौजवानों की भर्ती रोकने की कोशिश की, यह इतिहास के पन्नों में दर्ज है। सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह को बड़ी ही चालाकी से संघ ने अपने स्वघोषित-स्वपरिभाषित  मानक के अनुसार इस्तेमाल किया जबकि सत्य यह है कि संघ से दोनों महान विभूतियों ने कभी इत्तिफाक नहीं रखा। 2014 के बाद एक बात तो हुई है कि बहुत सारे विषयों पर खुलकर बहस का आरंभ हुआ है और इतिहास खंगाल कर सामने रखा जाने लगा है। पक्ष और विपक्ष को सोशल मीडिया ने एक विशालकाय प्लेटफार्म उपलब्ध कराया है। अब संघ का राष्ट्रवाद और उसका हिन्दुत्व बहस का एक बड़ा विषय बन चुका है और यह बहस होती रहनी चाहिए। किसी भी बेहतरीन लोकतांत्रिक देश में पक्ष और विपक्ष में बहस होनी ही चाहिए...

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