Hindus के लिए अहम हैं ये 10 जानकारियां, धर्म-कर्म के लिए है जरूरी

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आज बात करते हैं हिन्दू धर्म (Hindus) की, हालाँकि कुछ लोगों का मानना है कि हिन्दू कोई धर्म नहीं बल्कि इसको सनातन धर्म कहना ज्यादा उचित होगा। हिंदू धर्म के पवित्र ग्रन्थों को दो भागों में बांटा गया है- ‘श्रुति’ और ‘स्मृति’। ‘श्रुति’ अर्थात ईश्‍वर से सुने हुये और ‘स्मृति’ अर्थात सुनकर याद करने के बाद कहे गये। हालाँकि स्मृति ग्रन्थों में देश-कालानुसार बदलाव हो सकता है, लेकिन ‘श्रुति’ में ऐसा नहीं होना पाया जाता है। ‘श्रुति’ के अन्तर्गत 4 वेद आते हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। ब्रह्म-सूत्र और उपनिषद् वेद का ही अंग हैं। प्रमुख स्मृति ग्रन्थ हैं- मनु-स्मृति, रामायण, महाभारत और 18 पुराण। श्रीमद्भागवत गीता महाभारत का एक हिस्सा है। वेद ही धर्म-ग्रंथ है, दूसरा अन्य कोई नहीं।Hindus

कौन-कौन से धर्म-कर्म के कार्य करना चाहिये

यदि आप हिन्दू हैं तो आपको कौन-कौन से धर्म-कर्म के कार्य करना चाहिये, यह जानना बेहद जरूरी है। हालाँकि समाज में हजारों तरह के रीति-रिवाज प्रचलित हैं लेकिन उन सभी का धर्म से संबंध नहीं होता। रिवाज की उत्पत्ति स्थानीय लोक-कथाओं, संस्कृति, अंधविश्वास, रहन-सहन और खान-पान आदि के आधार पर होती है। दरअसल लोगों की जिंदगी से संबंध रखने वाला काम रिवाज होता है। यह रिवाज़ एक जगह या वहां के लोगों के लिए आम होता है। वहीँ बहुत से ऐसे रिवाज हैं जो धार्मिक व पौराणिक कथाओं के आधार पर भी समाज में प्रचलित हो जाते हैं, लेकिन वह कितने उचित‍ है और कितने अनुचित ये बहस का विषय हो सकता है। (Hindus)

इस दुनिया में बहुत से धर्म, कर्म या रिवाज ऐसे हैं जो हिन्दू (Hindus) धर्म-ग्रंथों के मुताबिक सही नहीं हैं, जैसे सती-प्रथा, दहेज-प्रथा, मूर्ति-स्थापना और विसर्जन, माता की चौकी, अनावश्यक व्रत-उपवास और कथायें, पशु-बलि, जादू-टोना-टोटका, तंत्र-मंत्र, छुआ-छूत, ग्रह-नक्षत्र पूजा, मृतक की पूजा, चार-धाम को छोड़कर अन्य अधार्मिक तीर्थ-मंदिर, 16 संस्कारों के इतर अन्य संस्कार आदि। उक्त सभी बातों का हिन्दू या सनातन धर्म में कोई उल्लेख नहीं मिलता है। गुमामी के काल में हजारों तरह के रीति-रिवाज प्रचलन में आये। प्रत्येक रीति-रिवाज के पीछे अपना एक इतिहास छिपा हुआ है।

आइये जानते हैं धर्म-कर्म के ऐसे 10 प्रमुख कार्य जिसका धर्म से तो संबंध है लेकिन रिवाज से कोई वास्ता नहीं –

धर्म का प्रचार

धर्म (Hindus) की बात करना, उसकी प्रशंसा करना और धर्म के बारे में सही-सही जानकारी लोगों तक पहुंचाना प्रत्येक हिन्दू अथवा सनातनी का कर्तव्य होता है। धर्म प्रचार में वेद, उपनिषद और गीता के ज्ञान का प्रचार करना ही उत्तम माना गया है। धर्म के प्रचारकों के कुछ प्रकार हैं। हिन्दू /सनातन धर्म को पढ़ना और समझना बेहद जरूरी है।

हिन्दू धर्म/सनातन धर्म को समझने के बाद ही उसका प्रचार और प्रसार करना अहम होता है। धर्म के बारे में सत्य और सही ज्ञान होगा, तभी उस ज्ञान को दूसरे को बताना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को धर्म प्रचारक होना जरूरी है। इसके लिए भगवा वस्त्र धारण करने या संन्यासी होने की जरूरत बिलकुल नहीं है। अपने धर्म की प्रशंसा करना और उसके खिलाफ नहीं सुनना ही धर्म की सच्ची सेवा है।

संध्या-वंदन है प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य

संध्या-वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। मंदिर में जाकर संधि काल में ही संध्या-वंदन की जाती है। वैसे संधि 8 वक्त की मानी गयी है। उसमें भी 5 महत्वपूर्ण है। 5 में से भी सूर्य उदय/ सूर्योदय और अस्त/ सूर्यास्त अर्थात दो वक्त की संधि महत्वपूर्ण है। (Hindus)

संध्याकाल/ सायंकाल में मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणणयाम आदि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। संध्योपासना के 4 प्रकार है- 1.संध्या-वंदन, 2.प्रार्थना-ध्यान, 3.कीर्तन-भजन और 4.पूजा-आरती। व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा ही करता है। शास्त्रों के अनुसार मंदिर में संध्या-वंदन या संध्योपासना के ही नियम बताये गये हैं। इसके भी कुछ प्रकार और विधि होते हैं। (Hindus)

व्रत और त्योहार

व्रत या उपवास करने से शरीर/काया निरोगी और साथ-साथ जीवन में शांति मिलती है। सूर्य की 12 और 12 चंद्र की संक्रांति होती है। सूर्य संक्रांतियों में उत्सव का अधिक महत्व है, तो चंद्र संक्रांति में व्रतों का अधिक महत्व माना गया है। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन। इसमें से श्रावण मास को व्रतों में सबसे श्रेष्ठ मास माना गया है। इसके अलावा प्रत्येक माह की एकादशी, चतुर्दशी, चतुर्थी, पूर्णिमा, अमावस्या और अधिमास में व्रतों का अलग-अलग महत्व है। सौरमास और चंद्रमास के बीच बढ़े हुए दिनों को मलमास या अधिमास कहते हैं। साधुजन चतुर्मास अर्थात 4 महीने श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक माह में व्रत रखते हैं। (Hindus)

‘सामूहिक त्योहार’ मनाना जरूरी

उत्सव, पर्व और त्योहार सभी का अलग-अलग अर्थ और महत्व है। प्रत्येक ऋतु में एक उत्सव है। उन त्योहार, पर्व या उत्सव को मनाने का महत्व अधिक है जिनकी उत्पत्ति स्थानीय परम्परा या संस्कृति से न होकर जिनका उल्लेख वैदिक धर्मग्रंथ, धर्मसूत्र, स्मृति, पुराण और आचार संहिता में मिलता है।

चंद्र और सूर्य की संक्रांतियों अनुसार कुछ त्योहार मनायें जाते हैं। 12 सूर्य संक्रांति होती हैं जिसमें 4 प्रमुख है:- मकर, मेष, तुला और कर्क। इन चार में मकर संक्रांति महत्वपूर्ण है। सूर्योपासना के लिए सबसे प्रसिद्ध पर्व है छठ, संक्रांति और कुंभ। पर्वों में रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, गुरुपूर्णिमा, वसंत पंचमी, हनुमान जयंती, नवरात्रि, शिवरात्रि, होली, ओणम, दीपावली, गणेशचतुर्थी और रक्षाबंधन प्रमुख हैं। हालांकि सभी में मकर संक्रांति और कुंभ को सर्वोच्च माना गया है। (Hindus)

दान और सेवा

सर्वप्रथम मात-पिता, फिर बहन-बेटी, फिर भाई-बांधु की किसी भी तरह से मदद करना ही सबसे बड़ी धार्मिक सेवा है। इसके बाद अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना सबसे बड़ा पुण्य माना गया है। इसके अतिरिक्त सभी प्राणियों, पक्षियों, गाय, कुत्ते, कौए, चींटी आदि को अन्न-जल देना। यह सभी पंच यज्ञ-कर्म में आते हैं। (Hindus)

दान से मृत्यु-काल में लाभ मिलता है

दान से इंद्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूटती है। मन की ग्रथियां खुलती हैं जिससे मृत्यु-काल में लाभ मिलता है। देव आराधना का दान सबसे सरल और उत्तम उपाय माना गया है। वेदों में तीन प्रकार के दाता कहे गये हैं- 1.उक्तम, 2.मध्यम और 3.निकृष्‍ट। धर्म की उन्नति रूप सत्यविद्या के लिए जो देता है वह उत्तम। कीर्ति या स्वार्थ के लिए जो देता है तो वह मध्यम और जो वेश्‍यागमनादि, भांड, भाटे, पंडे को देता वह निकृष्‍ट माना गया है। पुराणों में अन्नदान, वस्त्रदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान को ही श्रेष्ठ माना गया है, यही पुण्‍य भी है। (Hindus)

यज्ञ के प्रमुख 5 प्रकार हैं- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ। यज्ञ पालन से ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृ ऋण, धर्म ऋण, प्रकृति ऋण और मातृ ऋण से मुक्ति मिलती है। नित्य संध्या-वंदन, स्वाध्याय तथा वेद-पाठ करने से ब्रह्म-यज्ञ संपन्न होता है। देव-यज्ञ सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से सम्पन्न होता है। अग्नि जलाकर होम करना अग्निहोत्र यज्ञ है। (Hindus)

धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ

पितृयज्ञ को श्राद्धकर्म भी कहा जाता है। यह यज्ञ पिंडदान, तर्पण और सन्तानोत्पत्ति से सम्पन्न होता है। वैश्वदेव यज्ञ को भूत यज्ञ भी कहते हैं। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ कहलाता है। अतिथि यज्ञ से अर्थ मेहमानों की सेवा करना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इसके अलावा अग्निहोत्र, अश्वमेध, वाजपेय, सोमयज्ञ, राजसूय और अग्निचयन का वर्णण यजुर्वेद में मिलता है। (Hindus)

प्रायश्चित करना

प्राचीनकाल से ही हिन्दु्ओं (Hindus) में मंदिर में जाकर अपने पापों के लिए प्रायश्चित करने की परंपरा रही है। प्रायश्‍चित करने के महत्व को स्मृति और पुराणों में विस्तार से समझाया गया है। गुरु और शिष्य परंपरा में गुरु अपने शिष्य को प्रायश्चित करने के अलग-अलग तरीके बताते हैं। दुष्कर्म के लिए प्रायश्चित करना, तपस्या का एक दूसरा रूप है।

यह मंदिर में देवता के समक्ष 108 बार साष्टांग प्रणाम , मंदिर के इर्द-गिर्द चलते हुए साष्टांग प्रणाम और कावडी अर्थात वह तपस्या जो भगवान मुरुगन को अर्पित की जाती है, जैसे कृत्यों के माध्यम से की जाती है। मूलत: अपने पापों की क्षमा भगवान शिव और वरूणदेव से मांगी जाती है, क्योंकि क्षमा का अधिकार उनको ही है। जैन धर्म में ‘क्षमा पर्व’ प्रायश्चित करने का दिन है।

दीक्षा देना

दीक्षा देने का प्रचलन वैदिक ऋषियों ने प्रारंभ किया था। प्राचीन-काल में पहले शिष्य और ब्राह्मण बनाने के लिए दीक्षा दी जाती थी। माता-पिता अपने बच्चों को जब शिक्षा के लिए भेजते थे तब भी दीक्षा दी जाती थी। हिन्दू/सनातन धर्मानुसार दिशाहीन जीवन को दिशा देना ही दीक्षा है। दीक्षा एक शपथ, एक अनुबंध और एक संकल्प है। दीक्षा के बाद व्यक्ति द्विज बन जाता है। द्विज का अर्थ दूसरा जन्म। दूसरा व्यक्तित्व। सिख धर्म में इसे अमृत संचार कहते हैं। (Hindus)

अलग-अलग धर्मों में दीक्षा देने के भिन्न-भिन्न तरीके

यह दीक्षा देने की परंपरा जैन धर्म में भी प्राचीन-काल से रही है, हालांकि दूसरे धर्मों में दीक्षा को अपने धर्म में धर्मांतरित करने के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा। धर्म से इस परंपरा को ईसाई धर्म ने अपनाया जिसे वे बपस्तिमा कहते हैं। अलग-अलग धर्मों में दीक्षा देने के भिन्न-भिन्न तरीके हैं। यहूदी धर्म में खतना करके दीक्षा दी जाती है। (Hindus)

प्रत्येक गुरुवार को मंदिर जाना चाहिए

घर में मंदिर नहीं होना चाहिए। प्रत्येक गुरुवार को मंदिर जाना चाहिए। मंदिर में जाकर पूजा के साथ-साथ परिक्रमा भी करना चाहिए। भारत में मंदिरों, तीर्थों और यज्ञादि की परिक्रमा का प्रचलन प्राचीन-काल से ही रहा है। मंदिर की 7 बार (सप्तपदी) परिक्रमा करना बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह 7 परिक्रमा विवाह के समय अग्नि के समक्ष भी की जाती है। प्रदक्षिणा षोडशोपचार पूजा का एक अंग है। प्रदक्षिणा की प्रथा अतिप्राचीन है।

हिन्दू (Hindus) सहित जैन, बौद्ध और सिख धर्म में भी परिक्रमा का महत्व है। इस्लाम में मक्का स्थित काबा की 7 परिक्रमा का प्रचलन है। पूजा-पाठ, तीर्थ परिक्रमा, यज्ञादि पवित्र कर्म के दौरान बिना सिले सफेद या पीत वस्त्र पहनने की परंपरा भी प्राचीनकाल से हिन्दुओं में प्रचलित रही है। मंदिर जाने या संध्यावंदन के पूर्व आचमन या शुद्धि करना जरूरी है। इसे इस्लाम में वुजू कहा जाता है।

तीर्थ करना है पुण्य कर्म

तीर्थ और तीर्थ-यात्रा का बड़ा पुण्य है। जो मनमाने तीर्थ और तीर्थ पर जाने के समय है, उनकी यात्रा का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं। तीर्थों में चार धाम, ज्योतिर्लिंग, अमरनाथ, शक्तिपीठ और सप्तपुरी की यात्रा का ही महत्व है। अयोध्या, मथुरा, काशी और प्रयाग को तीर्थों का प्रमुख केंद्र माना जाता है, जबकि कैलाश मानसरोवर को सर्वोच्च तीर्थ माना है। (Hindus)

बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम और जगन्नाथ पुरी ये चार धाम है। सोमनाथ, द्वारका, महाकालेश्वर, श्रीशैल, भीमाशंकर, ॐकारेश्वर, केदारनाथ विश्वनाथ, त्र्यंबकेश्वर, रामेश्वरम, घृष्णेश्वर और बैद्यनाथ ये द्वादश ज्योतिर्लिंग हैं। काशी, मथुरा, अयोध्या, द्वारका, माया, कांची और अवंति उज्जैन ये सप्तपुरी। उपरोक्त कहे गये तीर्थ की यात्रा ही धर्म-सम्मत है। (Hindus)

संस्कार ही है सभ्य समाज का आईना

संस्कारों के प्रमुख 16 प्रकार के बताये गये हैं जिनका पालन करना प्रत्येक हिंदू का कर्तव्य है। इन संस्कारों के नाम है-गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अंत्येष्टि। प्रत्येक हिन्दू को उक्त संस्कार को अच्छे से नियमपूर्वक करना चाहिए। यह मनुष्य के सभ्य और हिन्दू होने की निशानी है। उक्त संस्कारों को वैदिक नियमों के द्वारा ही संपन्न किया जाना चाहिए। (Hindus)

पाठ करना

वेदों, उपनिषद या गीता का पाठ करना या सुनना प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है। उपनिषद और गीता का स्वयंम अध्ययन करना और उसकी बातों की किसी जिज्ञासु के समक्ष चर्चा करना पुण्य का कार्य है, लेकिन किसी बहसकर्ता या भ्रमित व्यक्ति के समक्ष वेद वचनों को कहना निषेध माना जाता है।

प्रतिदिन धर्म ग्रंथों का कुछ पाठ करने से देव शक्तियों की कृपा मिलती है। हिन्दू धर्म में वेद, उपनिषद और गीता के पाठ करने की परंपरा प्राचीनकाल से रही है। वक्त बदला तो लोगों ने पुराणों में उल्लेखित कथा की परंपरा शुरू कर दी, जबकि वेदपाठ और गीता पाठ का अधिक महत्व है। इसी तरह सिख धर्म में जपुजी का पाठ किया जाता है। ‍इस्लाम में इसे तिलावत करना कहते हैं। (Hindus)

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