नई दिल्ली 10 अक्टूबर यूपी किरण। हिन्दुस्तान में मनोरोगियों की बढ़ोतरी का सालाना आंकड़ा भयभीत करता है। इसमें प्रत्येक वर्ष एकाध प्रतिशत का इज़ाफा हो रहा है। मनोरोग की रोकथाम का जो मौजूदा सरकारी इंफ्रास्ट्रक्चर है वह नाकाफी है। जहां लाखों मनोचिकित्सकों की जरूरत है, वहां कुछ हजार चिकित्सक हैं।
देश के चुनिंदा अस्पतालों को छोड़ दें तो बाकी अस्पतालों में चिकित्सकों की तैनाती नहीं है। वहीं, गांव-देहात के अस्पतालों में तो मनोचिकित्सकों की मौजूदगी बिल्कुल नदारद है। जबकि, डब्लूएचओ का आंकड़ा ये कहता है कि अगले दो दशकों के भीतर भारत में मेंटल समस्या अव्वल स्थान पर होगी। उस हिसाब से तो हमारा मेंटल इंफ्रास्ट्रक्चर कहीं नहीं टिकता। इसलिए समय रहते हमें अपने मेंटल इंफ्रास्ट्रक्चर में विस्तार करना होगा।
डब्ल्यूएचओ की मानें तो कोरोना संकट में मनोरोगियों की संख्या में अप्रत्याशित इज़ाफा हुआ है। कोरोना काल में लोगों के काम-धंधे, रोज़गार के साधन व जीवन-यापन जैसी ज़रूरतों पर प्रत्यक्ष रूप से संकट आ जाने के चलते मानसिक सेहत खराब हुई है।अक्टूबर की दस तारीख यानी आज के दिन को पूरा विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाता है। इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के संबंध में जन मानस को जागरूक करना और मानसिक बीमारियों से बचने के प्रयासों को बताना होता है।
ये दिवस इस बात पर भी जोर देता है कि मानसिक स्वास्थ्य के लिए और क्या किए जाने की हमें जरूरत है। अमेरिका की हावर्ड यूनिवर्सिटी की हालिया रिपोर्ट बताती है कि विश्व का दसवाँ व्यक्ति कोरोना संकट में किसी न किसी रूप से मानसिक बीमारी से ग्रस्त हुआ है जिसमें मनोरोग मुख्य है। मौजूदा वक्त ऐसा है जिसमें इंसानी जीवन चौतरफा घिर गया है। एक नहीं, बल्कि एक साथ कई समस्याओं में उलझ कर खुद से सामना कर रहा है।मानसिक बीमारी लोगों को आत्महत्या करने को प्रेरित करने लगी है।
गौरतलब है, खराब सेहत वाले इंसान के लिए सुसाइट एक ऐसा विषय है जिसे वह अपनी सहमति से चुनता है। इस सब्जेक्ट पर सदियों से रिसर्च होती रही है। आत्महत्या को किसी भी रूप में जायज नहीं ठहराया जा सकता। विश्व स्वास्थ्य संगठन हमेशा से हमें मानसिक सेहत को चंगा रखने को कहता आया है। बेवजह की टेंशन नहीं लेनी चाहिए, मन में उत्पन्न होने वाले विकारों को अपने परिचितों से शेयर करना चाहिए। जिंदगी को अकेला नहीं छोड़ना चाहिए, उसमें अपना और अपने चाहने वालों का हस्तक्षेप होते रहना चाहिए।
जरूरत इस बात की है कि अपना जब कोई अवसाद से घिर जाए तो उसे अकेला और एकांत नहीं छोड़ना चाहिए, उस वक्त उसे हमारी सबसे ज्यादा जरूरत होती है। हालांकि अवसाद की अवस्था में वह हमसे दूरी बनाएगा, लेकिन हमें दूरी नहीं बनानी चाहिए। अवसाद में इंसान के भीतर कुछ ऐसे विचार मन में उत्पन्न होने लगते हैं जब वह खुद से स्नेह करना छोड़ देता है। हर तरह की मोहमाया उसे बेमानी लगने लगती है। जीवन और दुनिया को व्यर्थ समझने लगता है। ऐसी स्थिति में इंसान आत्महत्या की ओर बढ़ जाता है।
एंग्जायटी साइकोसिस भी इन दिनों एक बड़ी समस्या बन रही है। इसके चुंगल में प्रतिष्ठित और साधन संपन्न लोग भी आ रहे हैं। गंभीर मंथन करने वाली बात है, जब ऐसे व्यक्ति ख़ुदकुशी तय कर ले तो कुछ भी कहते नहीं बनता। नगालैंड के राज्यपाल रहे, सीबीआई प्रमुख की भूमिका निभाने वाले हिमाचल प्रदेश के पूर्व डीजीपी अश्वनी कुमार की ख़ुदकुशी हमें विचलित ही नहीं करती, बल्कि सोचने पर मजबूर करती है। वह ऐशोआराम जैसे जीवन से तंग थे। उनके जीवन में भी उदासीनता थी, मनोरोगी थे। इस शून्यता को कोई भला कैसे रेखांकित करे।
विश्व स्वास्थ्य दिवस पर विश्व के सभी देशों की सरकारों को इस क्षेत्र में मुकम्मल सिस्टम स्थापित करने के अलावा मेंटल हेल्थ प्रोफेशनल यानी मनोचिकित्सकए क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट और मनोवैज्ञानिक कार्यकर्ता को बढ़ावा देने के लिए जागरूक करना होगा। क्योंकि इन ज़रूरतों का बहुत बड़ा गैप है। ये सेवाएं हर जगह उपलब्ध नहीं हैं। अस्पतालों में मनोचिकित्सा विभागों की कमी है।
मनोरोग पर काबू करने के लिए स्वास्थ्य सिस्टम को अमूलचूक परिवर्तन लाना होगा। अलग से विशेष मेडिकल दस्ते की स्थापना करनी होगी। मेंटल केसों को हैंडल करने में अभी जो चिकित्सक लगाए जाते हैं उन्हें मानसिक बीमारियों के संबंध में उपयुक्त जानकारियाँ नहीं होती। हिंदुस्तान में पचास हजार से अधिक मनोचिकित्सकों की मांग है। इस वक्त मात्र चार हजार के आसपास मनोचिकित्स हैं। जबकि, भारत में आबादी के 9 फीसदी लोग दिमागी मरीज हैं और विश्व के कुल मनोरोगियों की संख्या पंद्रह प्रतिशत भारत में है। ऐसे में सख्त जरूरत है मेंटल इंफ्रास्ट्रक्चर को सुदृढ़ करने की।