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खालसा शब्द अरबी भाषा के खालिस से बना है जिसका अर्थ होता है शुद्ध। गुरुगोबिंद सिंह जी ने 1699 में खालसा पंथ की स्थापना की थी। खालिस्तान इसी खालसा से बना हुआ है। इसका मतलब होता है खालसा का राज। आजादी से पहले 1929 में लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज की मांग का प्रस्ताव रखा था। इस प्रस्ताव का कांग्रेस के भीतर ही तीन नेताओं ने विरोध किया। मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा मुसलमानों को हिस्सेदारी मिले। मास्टर तारासिंह में सिखों की हिस्सेदारी की बात कही। भीमराव अंबेडकर ने दलितों की हिस्सेदारी और अलग निर्वाचन व्यवस्था की मांग की, लेकिन तीनों की मांगों को खारिज कर दिया गया था।

खालिस्तान आंदोलन के अगुवा मास्टर तारा सिंह जीते जी अहिंसक तरीके से खालिस्तान की मांग उठाते रहे, लेकिन 1967 में उनकी मृत्यु के बाद खालिस्तान का आंदोलन हिंसा में तब्दील हो गया था। इसके पीछे दो बड़ी वजह थी।

बांग्लादेश हारने के बाद पाकिस्तान ने भारत से बदला लेने के लिए कोल्ड वॉर का सहारा लिया। यानि कि किसी को न बताए हुए अंदर ही अंदर विवाद शुरू कर देना या युद्ध शुरू कर देना। उग्रवादी सिख संगठनों को पाकिस्तान की ओर से फंडिंग और हथियार की व्यवस्था की गई। पैसे और हथियार के लालच में सिख युवा आ गए, जिससे आंदोलन और तेज हो गया। पंजाब बनने के बाद से ही वहां राजनीतिक उथल पुथल का दौर शुरू हो गया।

ज्ञानी जैल सिंह को छोड़कर कोई भी मुख्यमंत्री पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। राजनीतिक अस्थिरता का फायदा उठाकर आंदोलन के नेता इसे हिंसक बनाते चले गए। राज्य में इक्विटी सेविंग के विधानसभा चुनाव में अकाली दल को जीत मिली। उसने मास्टर तारा सिंह के वक्तव्यों को जमकर भुनाया। गुरनाम सिंह को अकाली दल का नेता चुना गया और वे मुख्यमंत्री बनाए गए, लेकिन 250 दिन बाद ही उनकी सरकार में बगावत हो गई।

लक्ष्मण सिंह गिल के नेतृत्व में 16 विधायकों ने अलग गुट बना लिया था। इस गुट को कांग्रेसियों ने समर्थन दे दिया। पंजाब में 1971 राजनीतिक उथल पुथल का दौर जारी रहा। उसके बाद 1971 में बांग्लादेश विभाजन के बाद पंजाब में इंदिरा गांधी को जबरदस्त समर्थन मिला। इस चुनाव में अकालियों का पत्ता साफ हो गया। इसके बाद फिर शुरू हुआ अलग खालिस्तान की मांग का दौर।

ये थी 3 मांगे

1973 में अकाली दल ने आनंदपुर साहिब में एक प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव में तीन प्रमुख बातें कही गई थी। पंजाब को जम्मू कश्मीर की तरह स्वायत्तता मिले। सिर्फ रक्षा, विदेश, संचार और मुद्रा पर केंद्र का दखल रहे। केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ को पूरी तरह से पंजाब को सौंप दिया जाए। पूरे देश में गुरुद्वारा समिति का निर्माण हो और सिखों को सेना में अधिक जगह मिले।

कई बार इस प्रस्ताव को दोहराया गया। इन सब में ही अमृतसर में निरंकारी संप्रदाय के साथ अकाली दल का विवाद हो गया। निरंकार समुदाय के लोगों को जीवित गुरुओं पर विश्वास था जबकि सिख गुरु गोबिंद सिंह जी के बाद किसी को गुरु नहीं मानते हैं। दोनों के बीच यह विवाद वर्षों पुराना है, लेकिन 1978 में हुए विवाद में 13 अकाली कार्यकर्ताओं की मौत हो गई। इसमें जनरैल सिंह भिंडरावाले का करीबी फौजा सिंह भी शामिल था।

कोर्ट में यह केस चला और निरंकारी संप्रदाय के प्रमुख गुरबचन सिंह केस में बरी हो गए। इसके बाद शुरू हुआ पंजाब में भिंडरावाले के आतंक का दौर। भिंडरावाले के समर्थकों ने एक टीम में गुरबचन सिंह की हत्या कर दी। कई जगहों पर हिंदू और निरंकारी समुदाय के लोग मारे जाने लगे। पंजाब की स्थिति दयनीय हो गई थी। लॉ एंड ऑर्डर पूरी तरह से ध्वस्त हो गया था।

भिंडरावाले ने स्वर्ण मंदिर को अपना ठिकाना बना लिया और अकाल तख्त से ही उसने सिखों के लिए संदेश जारी करना शुरू कर दिया। 
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि अकाल तख्त का संदेश सिखों के लिए सिख समुदाय के लिए सर्वोपरी होता है। उसके बाद ही नेतृत्व में भिंडरावाले ने अकाली दल से हाथ मिला लिया और धर्म युद्ध लॉन्च कर दिया। पंजाब में खालिस्तान आंदोलन के विरोध में बोलने वाले लोगों को भिंडरावाले और उसके समर्थक मौत के घाट उतार दिया करते थे। 1983 में जालंधर के डीआईजी एएस अठवाल को स्वर्ण मंदिर में सीढ़ियों पर गोलियों से भून दिया गया। इसके बाद इंदिरा गांधी ने ऑपरेशन ब्लूस्टार शुरू करने के आदेश दे दिए। ब्लूस्टार के बाद खालिस्तान और अधिक सक्रिय हो गए। उनके कई गुट बन गए जो आज भी भारत को अंदर और बाहर से खोखला करने का प्रयास कर रहे हैं। 

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