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धर्म  डेस्क। भगवान शिव अनादि हैं। सनातन परंपरा में शिव की पूजा शिवलिंग के रूप में होती आ रही है। शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव संसार में सबसे पहले अपने निराकार रूप में ही प्रकट हुए, जो कि एक बहुत विशाल ज्योर्तिलिंग ही था। बाद में शिव जी जगत का कल्याण करने के लिए साकार रूप धारण किया। साकार रूप में शिव के आभूषण के रूप में त्रिनेत्र, हाथों में डमरू और त्रिशूल, गले में सर्प की माला को धारण किया। भगवान शिव के इन आभूषणों को धारण करने के गहरे निहितार्थ हैं।

शास्त्रों के अनुसार शिव को शमशान का स्वामी माना गया है। शिव जी शमशान में मुर्दे की भस्म लपेटकर विराजते हैं। ‘शव’ शब्द से ही शिव शब्द का निर्माण हुआ है। इसी तरह शिव जी का आसन बाघ की खाल है। बाघ हिंसक पशु है। इस तरह भय पैदा करने वाली मारक शक्तियों के अहम का शमन करने के बाद उस अहम के प्रतिरूप में भगवान शिव ने उसे आसन के लिए प्रयोग किया गया है। इस तरह शमशान में जाने के बाद बडी से बडी शक्ति वाला व्यक्ति का अहम व मद शिव स्थान, श्मशान में जाने से समाप्त हो जाता है।

इसी तरह रूद्राक्ष साक्षात शिव का प्रतीक माना गया है। रुद्राक्ष के बीज काफी समय तक सुरक्षित रहते हैं। इन बीजों की माला प्रयोग करने से एकाग्रता बढ़ती है। मंत्र साधना के लिये रुद्राक्ष की माला को प्रयोग में लाया जाता है। गले मे लिपटे हुए सांप अहम के प्रतीक माने जाते है, एक शिव ही अहम को आभूषण की तरह धारण हैं। इसी तरह शिव के सिर के ऊपर जटा से बहती हुई गंगा की धारा धर्म के निरंतर प्रवाहित गति की प्रतीक है।

इसी तरह भगवान् शिव के माथे पर नाक के ऊपर स्थापित तीसरी आंख ज्ञान के अहम का प्रतीक है। शिव का त्रिनेत्र खुलते ही वह अहम समाप्त होकर राख हो जाता है। अहम की सीमा समाप्त होने पर ही व्यक्ति शिव स्वरूप को प्राप्त करता है। इसी तरह शिव के सभी प्रतीक अहम का शमन करने वाले हैं।  
 

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