धर्म डेस्क। सनातन धर्म में गणेश चतुर्थी का बड़ा महत्व है। वैसे तो हर महीने गणेश चतुर्थी होती है, लेकिन भादौं मास शुक्ल पक्ष की तिथि चर्तुर्थी अपने आप में खास होती है। इसी दिन से गणेश उत्सव का प्रारंभ होता है। इस दिन बप्पा को घर में विराजित किया जाता है और 10 दिनों तक उनकी आराधना की जाती है और दसवें दिन गणपति बप्पा का विसर्जन कर दिया जाता है। परंपरा के अनुसार गणेश चतुर्थी का व्रत बिना कथा के अधूरा होता है। तो आइए जानते हैं गणेश चतुर्थी की व्रत कथा के बारे में ...
एक बहुत ही प्राचीन पौराणिक कथा है। इस कथा के अनुसार भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी का विवाह तय हो गया था। इस विवाह का शुभ मुहूर्त भी निकाला गया था। इस पावन विवाह में शामिल होने के लिए सभी देवी-देवताओं, गंधर्वों और ऋषियों-मुनियों को निमंत्रण भेजा गया, लेकिन भगवान गणेश को ज्योता नहीं मिला। जब बारात में शामिल होने के लिए सभी देव गण आदि एकत्र हुए, लेकिन भगवान गणेश जी किसी को नजर नहीं आये।
देवताओं ने भगवान विष्णु से गणेश जी के ना आने का कारण पूछा तो सृष्टिकर्ता विष्णु ने कहा कि भगवान शिव को न्यौता दिया गया है और यदि गणेश उनके साथ आना चाहते हैं तो आ जाएं। भगवान विष्णु ने यह भी कहा कि गणेश जी भोजन बहुत ज्यादा करते हैं और हम किसी और के घर उन्हें भरपेट भोजन कैसे कराएंगे ? इस पर देवताओं ने भगवान् विष्णु को सुझाव दिया कि गणेश जी को बुला लेते हैं, लेकिन उन्हें विष्णुलोक की सुरक्षा करने को कह देंगे, जिससे वे बारात में नहीं जा सकेंगे। ऐसे में उनका निमंत्रण भी हो जाएगा और भोजन कराने से भी बचा जा सकेगा।
देवताओं के सुझाव पर भगवान् विष्णु ने ऐसा ही किया। निमंत्रण पर गणेश जी आये लेकिन बरात में न जाकर वो विष्णु लोक की सुरक्षा के लिए रुक गए। गणेश जी रुक तो गए, लेकिन वे क्रोधित थे। इसी समय देवर्षि नारद मुनि वहां आए और गणपति बप्पा के क्रोध का कारण जाना। कारन जान्ने के बाद नारद मुनि ने गणेश जी को चूहों की सेना भेजकर बारात का रास्ता खुदवाने की सलाह दी। भगवान गणेश जी ने नारद जी की सलाह पर वैसा ही किया।
गणेश जी की आज्ञा पाकर चूहों की सेना ने बारात का रास्ता खोदकर चाल डाला। जब बारात उस मार्ग से गुजर रही थी तो बरात का रथ गड्ढों में धंस गया। रथ को निकालने के लिए खाती को बुलाया गया और उसने गणेश जी की आराधना कर रथ के पहिए निकाले। इससे सभी देवताओं को गणेश की पूजा का महत्व समझ में आया और इसके बाद भगवन विष्णु और माता लक्ष्मी का विवाह बिना विघ्न के पूर्ण हुआ। इस तरह गणेश जी का नाम विघ्नहर्ता पड़ा।
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