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 Up Kiran, Digital Desk: श्री जगन्नाथ पुरी मंदिर, भारत के सबसे पवित्र और रहस्यमयी मंदिरों में से एक है. हर साल लाखों श्रद्धालु यहां महाप्रभु के दर्शन के लिए आते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस मंदिर के इतिहास में एक ऐसा भी समय था जब यहां 18 सालों तक कोई पूजा नहीं हुई, कोई घंटी नहीं बजी और मंदिर के दरवाजे भक्तों के लिए पूरी तरह से बंद कर दिए गए थे. इसके पीछे की वजह एक छोटी सी गलती और एक क्रूर शासक का डर था.

यह कहानी हमें इतिहास के उन पन्नों में ले जाती है जब भारत पर विदेशी आक्रांताओं की नज़र थी. आइए जानते हैं कि आखिर वो दो बड़ी वजहें क्या थीं, जिनके कारण महाप्रभु जगन्नाथ को भी अज्ञातवास में रहना पड़ा.

पहली वजह: एक क्रूर मुस्लिम शासक का हमला

यह बात है साल 1692 की. उस समय बंगाल पर औरंगजेब के सूबेदार नवाब एकराम खान का शासन था. एकराम खान अपनी क्रूरता और मंदिर तोड़ने के लिए कुख्यात था. उसकी नज़र पुरी के जगन्नाथ मंदिर पर पड़ी. उसने मंदिर को तोड़ने और मूर्तियों को खंडित करने के इरादे से एक विशाल सेना के साथ ओडिशा पर हमला कर दिया.

जैसे ही मंदिर के पुजारियों को इस हमले की खबर मिली, उनमें हड़कंप मच गया. उन्हें पता था कि अगर मूर्तियां इस हमलावर के हाथ लग गईं तो वह उन्हें अपवित्र कर देगा. इसलिए, महाप्रभु जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा की पवित्र मूर्तियों की रक्षा के लिए पुजारियों ने उन्हें गुप्त रूप से मंदिर से बाहर निकाल लिया. मूर्तियों को एक नाव के जरिए चिल्का झील के पास एक गुप्त स्थान पर छिपा दिया गया. इसके बाद मंदिर के दरवाजे बंद कर दिए गए.

दूसरी वजह: महाप्रसाद से जुड़ी एक गलती

कहते हैं कि जब भगवान को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा रहा था, तब एक बड़ी गलती हो गई. परंपरा के अनुसार, यात्रा के दौरान भगवान को सिर्फ सूखा भोग ही लगाया जा सकता है. लेकिन उस समय किसी पुजारी ने भूलवश भगवान को पका हुआ महाप्रसाद (चावल) का भोग लगा दिया.

इस घटना को एक बड़ा अपशकुन माना गया. शास्त्रों के अनुसार, पके हुए भोजन का भोग लगने के बाद मूर्तियों को दोबारा मंदिर में स्थापित नहीं किया जा सकता था. इस एक गलती ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया. अब मूर्तियों को वापस मंदिर में लाने का रास्ता बंद हो गया था.

18 साल तक चला अज्ञातवास

एक तरफ क्रूर शासक का डर था, तो दूसरी तरफ परंपरा के टूटने का अपराध बोध. इन दोनों वजहों से मंदिर पूरे 18 साल तक बंद रहा. इस दौरान मूर्तियों को ओडिशा के अलग-अलग गुप्त स्थानों पर रखा गया ताकि उन्हें किसी की नज़र न लगे. साल 1710 में जब हालात कुछ सामान्य हुए, तब जाकर मूर्तियों को दोबारा पूरे विधि-विधान के साथ मंदिर में स्थापित किया गया और पूजा-अर्चना फिर से शुरू हो सकी.

यह घटना आज भी हमें बताती है कि जगन्नाथ पुरी मंदिर ने कितने थपेड़े सहे हैं, लेकिन भक्तों की आस्था और महाप्रभु की महिमा हमेशा बनी रही.