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Up Kiran Digital Desk: देश की आगामी जनगणना में केंद्र सरकार द्वारा जातिगत आंकड़े दर्ज करने की घोषणा ने एक नई सियासी बहस को जन्म दे दिया है। जहां एक ओर कांग्रेस इस फैसले का श्रेय अपने नेता राहुल गांधी के ‘दबाव अभियान’ को दे रही है। वहीं सत्तारूढ़ भाजपा ने पलटवार करते हुए इसे कांग्रेस की राजनीतिक नौटंकी करार दिया है।
दिल्ली स्थित कांग्रेस मुख्यालय के बाहर लगे एक बड़े पोस्टर में राहुल गांधी को ‘जाति जनगणना की जीत’ का हीरो बताया गया है। पोस्टर में गांधी की तस्वीर के साथ लिखा है, “हमने कहा मोदी जी को जाति जनगणना करवानी पड़ेगी। हम करवाएंगे। दुनिया झुकती है, उसे झुकाने वाला चाहिए।” यह संदेश सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए राजनीतिक चुनौती की तरह देखा जा रहा है।
कांग्रेस का दावा: "हमने सरकार को मजबूर किया"
पार्टी नेता श्रीनिवास बी.वी. द्वारा लगाए गए इस पोस्टर के जरिए कांग्रेस यह जताने में लगी है कि वंचित वर्गों की सशक्त भागीदारी सुनिश्चित करने की दिशा में यह एक ऐतिहासिक कदम है, जिसे राहुल गांधी की वर्षों की मुहिम और ‘भारत जोड़ो यात्रा’ जैसे अभियानों ने मजबूती दी।
राहुल गांधी ने इस मौके पर सोशल मीडिया मंच X पर लिखा, “हम यह सुनिश्चित करेंगे कि सरकार पारदर्शी और प्रभावी जाति जनगणना कराए। सभी को पता होना चाहिए कि देश की संस्थाओं और सत्ता में किस समुदाय की क्या हिस्सेदारी है।”
भाजपा का पलटवार: "इतिहास में कांग्रेस ने किया विरोध"
वहीं भाजपा ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी है। केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कांग्रेस पर झूठा श्रेय लेने का आरोप लगाते हुए कहा, “देश को सच जानने का हक है। नेहरू जाति आधारित आरक्षण के खिलाफ थे, और इंदिरा गांधी ने कभी इसे प्राथमिकता नहीं दी।”
प्रधान ने दावा किया कि 1977 में जनता पार्टी सरकार द्वारा मंडल आयोग की स्थापना से जातीय न्याय की नींव पड़ी थी, और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं जैसे अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी ने इसका समर्थन किया था।
सरकार की आधिकारिक घोषणा
केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कैबिनेट के इस फैसले को “सामाजिक समरसता” को बढ़ावा देने वाला बताया। उन्होंने कहा कि यह कदम भारत की सामाजिक और आर्थिक नीतियों को अधिक वैज्ञानिक आधार देगा और नीति निर्माण को समावेशी बनाएगा।
विश्लेषण: जातिगत आंकड़ों की सियासत
जातिगत जनगणना भारत में एक लंबे समय से विवादित मुद्दा रहा है। पिछली बार 1931 में पूर्ण जाति आंकड़े दर्ज किए गए थे। इसके बाद से जातिगत आधार पर डेटा संग्रह का बार-बार विरोध होता रहा है, खासकर यह तर्क दिया जाता रहा है कि इससे जातिवाद को बढ़ावा मिल सकता है।
लेकिन बदलते राजनीतिक परिदृश्य में अब यह सवाल उठाया जा रहा है-“यदि आरक्षण और प्रतिनिधित्व जाति आधारित है, तो डेटा जाति आधारित क्यों नहीं होना चाहिए?”
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