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Up Kiran, Digital Desk: अखिलेश यादव ने लखनऊ में आयोजित पसमांदा मुस्लिम समुदाय की बैठक में न केवल अपनी पिछली सरकार के कार्यों का ज़िक्र किया बल्कि ये भी बताया कि अगर 2027 में सत्ता में आए, तो कैसे बुनकर समुदाय को तकनीकी प्रशिक्षण और रोज़गार के नए अवसर मिलेंगे। ये कोशिश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पसमांदा पहुंच रणनीति की सीधी प्रतिक्रिया मानी जा रही है।

इस बैठक में कुरैशी, मंसूरी, अंसारी, सलमानी जैसे समुदायों के प्रतिनिधि मंच पर थे, जो यह संकेत देता है कि सपा अब महज़ ‘अशराफ’ मुस्लिम यानी शेख, सैयद, पठान पर निर्भर नहीं रहना चाहती।

बीजेपी की चुनौती: पसमांदा बनाम सपा की परंपरागत मुस्लिम अपील

बीजेपी ने पिछले दो वर्षों में पसमांदा मुस्लिमों को लेकर व्यापक अभियान चलाया है। केंद्रीय नेतृत्व ने यूपी में विशेष पसमांदा सम्मेलन कराए, और मुस्लिम समुदाय को यह दिखाने की कोशिश की कि सपा केवल "अशराफ मुसलमानों" की पार्टी है।

इस रणनीति का असर दिखा है। यही कारण है कि अखिलेश यादव ने अब खुद मोर्चा संभाला है और यह दिखाना चाहा है कि सपा हर मुसलमान की पार्टी है, न कि केवल खानदानी या ऊँची जाति के मुसलमानों की।

क्यों अहम हैं पसमांदा मुस्लिम

उत्तर प्रदेश की मुस्लिम आबादी करीब 20% है, जिसमें से 80-85% पसमांदा यानी सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े मुस्लिम समुदाय आते हैं। इनका जातिगत आधार व्यापक है जैसे अंसारी (जुलाहा), कुरैशी (कसाई), सलमानी (नाई), मंसूरी (धोबी), शाह (तेली) आदि।

सियासी विश्लेषकों का मानना है कि अगर बीजेपी इन जातियों में सेंध लगाने में सफल होती है, तो सपा के लिए मुस्लिम वोट बैंक एकजुट रखना मुश्किल हो जाएगा। इसी को ध्यान में रखते हुए अखिलेश ने अपनी PDAstrategy पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक को अब पसमांदा संवेदनशीलता के साथ पुनर्परिभाषित करना शुरू कर दिया है।

 

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