Up kiran,Digital Desk : गुजरात में आदिवासी कल्याण के लिए तय फंड के इस्तेमाल को लेकर सियासत तेज हो गई है। आम आदमी पार्टी ने राज्य सरकार पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा है कि आदिवासी हितों के लिए निर्धारित रकम का बड़ा हिस्सा वीआईपी कार्यक्रमों और स्वागत व्यवस्था पर खर्च कर दिया गया। सोमवार को दिल्ली में हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में आप के राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी अनुराग ढांडा और दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष सौरभ भारद्वाज ने भाजपा सरकार पर आदिवासी मुद्दों को नजरअंदाज करने का आरोप लगाया।
आप नेताओं का कहना है कि प्रधानमंत्री और अन्य बड़े कार्यक्रमों के आयोजन पर करोड़ों रुपये खर्च किए गए, जबकि आदिवासी इलाकों में पढ़ने वाले बच्चों की छात्रवृत्तियां, स्वास्थ्य सेवाएं और पोषण योजनाएं संसाधनों की कमी से जूझ रही हैं। अनुराग ढांडा ने कहा कि आदिवासी समाज के नाम पर बड़े-बड़े आयोजन तो किए जाते हैं, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि कई जगह छात्रवृत्तियां बंद पड़ी हैं, सिकल सेल जैसी गंभीर बीमारी के इलाज के लिए पर्याप्त मदद नहीं मिल रही और आंगनवाड़ी कर्मचारियों के भुगतान तक लंबित हैं।
सौरभ भारद्वाज ने इसे “दिखावे का विकास” बताते हुए कहा कि आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण, शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं आज भी बनी हुई हैं। उनका आरोप है कि सरकार की प्राथमिकता आदिवासी इलाकों की बुनियादी जरूरतों के बजाय बड़े मंचों, पंडालों और वीआईपी इंतज़ामों पर खर्च करने की ज्यादा दिखती है।
आप नेताओं के मुताबिक, डेडियापाड़ा से पार्टी विधायक चैतार वसावा द्वारा विधानसभा में पूछे गए सवालों के जवाब में जो आधिकारिक जानकारी सामने आई है, उससे पता चलता है कि सिर्फ एक कार्यक्रम में पंडाल, डोम, मंच निर्माण, परिवहन और वीआईपी आतिथ्य जैसी मदों पर अलग-अलग करोड़ों रुपये खर्च किए गए। पार्टी का कहना है कि अगर यही धन शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण योजनाओं में लगाया जाता, तो आदिवासी इलाकों में वास्तविक और स्थायी बदलाव संभव था।
फिलहाल इस पूरे मामले पर भाजपा या गुजरात सरकार की ओर से कोई औपचारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है। हालांकि सरकार पहले कई मौकों पर यह कहती रही है कि आदिवासी कल्याण के लिए विभिन्न योजनाएं चलाई जा रही हैं और विकास कार्यों पर लगातार निवेश किया जा रहा है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि आदिवासी फंड के इस्तेमाल को लेकर उठे ये सवाल आने वाले समय में गुजरात की राजनीति में और तीखे हो सकते हैं, खासकर तब जब सरकारी प्राथमिकताओं और जमीनी हालात के बीच फर्क को लेकर बहस तेज होती जा रही है।




