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Up Kiran, Digital Desk: देहरादून से खबर है कि भारत निर्वाचन आयोग ने उत्तराखंड के 11 पंजीकृत लेकिन गैर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को सूची से हटा दिया है। इससे पहले 9 अगस्त को भी छह दलों को इसी प्रक्रिया के तहत बाहर किया गया था। फिलहाल दो दलों को नोटिस भेजकर 13 अक्टूबर तक जवाब मांगा गया है। यह कदम आगामी 2027 विधानसभा चुनाव से पहले राजनीतिक परिदृश्य को साफ़ करने की दिशा में एक अहम कदम माना जा रहा है।

लोकतंत्र में छोटे दलों की भूमिका पर सवाल
ये दल 2019 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद के विधानसभा और लोकसभा चुनावों में सक्रिय नहीं रहे। चुनाव आयोग की मान्यता प्राप्त दलों के लिए जरूरी रिपोर्ट और वित्तीय दस्तावेज़ जमा नहीं कर पाने के कारण उन्हें डीलिस्ट किया गया है। छोटी पार्टियां अक्सर क्षेत्रीय मुद्दों को उठाती हैं और स्थानीय जनता की आवाज़ बनती हैं। लेकिन लगातार सक्रिय न रहने पर उनकी मौजूदगी सीमित रह जाती है। इस कदम से सवाल उठते हैं कि लोकतंत्र में ऐसी पार्टियों की भूमिका कितनी प्रभावशाली रह पाएगी और जनता को इसका कितना लाभ होगा।

डीलिस्टिंग प्रक्रिया और नियम
हर पांच साल में चुनाव से पहले नए दल सक्रिय हो जाते हैं और पंजीकृत होते हैं। लेकिन यदि वे आवश्यक वित्तीय पारदर्शिता और चुनावी भागीदारी पूरी नहीं करते तो आयोग उन्हें डीलिस्ट कर देता है। डीलिस्ट किए गए 11 दलों को 30 दिनों के अंदर अंतिम अपील का मौका दिया गया है। वहीं, दो दलों—भारतीय सर्वोदय पार्टी और उत्तराखंड प्रगतिशील पार्टी को अपने पक्ष को स्पष्ट करने के लिए नोटिस भेजा गया है।

राजनीतिक दलों को मिलने वाले लाभ पर प्रभाव
राजनीतिक दलों के पंजीकरण के बाद आयोग कई सुविधाएं प्रदान करता है जैसे कि आयकर में छूट, चुनाव चिह्न का आवंटन और स्टार प्रचारकों का नामांकन। डीलिस्ट होने के बाद ये सुविधाएं बंद हो जाती हैं। डीलिस्ट किए गए दलों में भारत कौमी दल, भारतीय सम्राट सुभाष सेना, गोरखा डेमोक्रेटिक फ्रंट, प्रजातन्त्र पार्टी ऑफ इंडिया सहित अन्य दल शामिल हैं। इससे उनकी चुनावी सक्रियता और जनसमूह तक पहुँच प्रभावित होगी।

भविष्य की राजनीति और आम जनता के लिए संकेत
ऐसा कदम राजनीतिक प्रणाली को व्यवस्थित और पारदर्शी बनाने के लिए आवश्यक माना जाता है। लेकिन साथ ही, इससे छोटे और उभरते दलों के लिए आगे बढ़ना कठिन हो सकता है। आम जनता के लिए यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि इन बदलावों का उनके क्षेत्रीय और सामाजिक मुद्दों पर क्या असर पड़ता है। लोकतंत्र की विविधता और जनता की आवाज़ को कैसे सुनिश्चित किया जाए, यह आगामी चुनावों में बड़ा सवाल होगा।