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Up Kiran, Digital Desk: कर्नाटक में राजनीतिक माहौल एक बार फिर गरमा गया है, और इसकी वजह है 'तुष्टिकरण की राजनीति' का दोबारा उभरना। लोकसभा चुनावों के बाद, जहां कांग्रेस को उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली, राज्य सरकार के कुछ हालिया फैसले इस बहस को फिर से जिंदा कर रहे हैं।

ताजा विवाद कर्नाटक गोहत्या रोकथाम और संरक्षण अधिनियम, 2020 को वापस लेने के कांग्रेस सरकार के निर्णय से जुड़ा है। यह कानून, जिसे पिछली भाजपा सरकार ने लागू किया था, गोहत्या पर प्रतिबंध लगाता था। कांग्रेस का तर्क है कि यह कानून 'कठोर' था और किसानों की आजीविका पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा था। हालांकि, आलोचक, विशेषकर भाजपा, इसे अल्पसंख्यकों, खासकर मुस्लिम समुदाय को खुश करने की कोशिश के रूप में देख रहे हैं।

भाजपा ने इस कदम की कड़ी निंदा की है, इसे 'हिंदू विरोधी' और 'तुष्टिकरण की पराकाष्ठा' करार दिया है। भाजपा का आरोप है कि कांग्रेस केवल वोट बैंक की राजनीति कर रही है और हिंदू भावनाओं को आहत कर रही है।

यह पहली बार नहीं है जब कर्नाटक में कांग्रेस सरकार पर तुष्टिकरण की राजनीति का आरोप लगा है। सिद्धारमैया के पिछले कार्यकाल (2013-18) के दौरान भी ऐसे आरोप लगे थे, जैसे पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) और कर्नाटक फोरम फॉर डिग्निटी (केएफडी) के सदस्यों के खिलाफ दर्ज मामलों को वापस लेना, 'शादी भाग्य' योजना, और टीपू जयंती समारोह का आयोजन। भाजपा ने इन सभी कदमों को एक समुदाय विशेष को रिझाने की कोशिश के रूप में देखा था।

सिद्धारमैया 2.0 सरकार द्वारा गोहत्या कानून को वापस लेने का निर्णय 'राम राज्य परिषद' जैसे संगठनों द्वारा कानूनी चुनौती का सामना कर सकता है। यह मुद्दा निश्चित रूप से आगामी विधानसभा और स्थानीय चुनावों में भाजपा के लिए एक मजबूत हथियार बनेगा, जो हिंदू वोटों को एकजुट करने का प्रयास करेगी। कांग्रेस के लिए यह एक मुश्किल संतुलन कार्य है – अल्पसंख्यक वोटों को साधने की कोशिश में कहीं वे बहुसंख्यक वोटों को न खो दें।

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