
केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के उस हालिया फैसले पर पुनर्विचार करने पर विचार कर रही है जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर समय-सीमा के भीतर निर्णय लेने का निर्देश दिया गया है। इस फैसले में अदालत ने कार्यपालिका की भूमिका और प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए कुछ ऐसे दिशा-निर्देश जारी किए हैं जो केंद्र सरकार के अनुसार संवैधानिक अधिकारों की व्याख्या को प्रभावित कर सकते हैं। रविवार को अधिकारियों ने बताया कि सरकार इस फैसले की समीक्षा याचिका दायर करने पर विचार कर रही है, हालांकि अभी कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया गया है।
क्या है मामला?
सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में स्पष्ट निर्देश दिया कि जब कोई राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए भेजता है, तो राष्ट्रपति को उस पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा। साथ ही, अदालत ने यह भी कहा कि राज्यपालों को राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर एक महीने के भीतर फैसला लेना अनिवार्य है।
यह फैसला विशेष रूप से तमिलनाडु सरकार द्वारा उठाए गए एक विवाद से संबंधित था, जिसमें राज्यपाल आरएन रवि द्वारा 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास लंबित रखा गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि विधेयकों को अनिश्चितकाल तक रोके रखना संविधान की भावना के खिलाफ है और यह प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करता है।
सरकार की आपत्ति और संभावित याचिका
केंद्र सरकार इस फैसले के उन हिस्सों को लेकर चिंतित है, जिनमें यह कहा गया है कि यदि राष्ट्रपति विधेयक पर निर्णय नहीं लेते हैं तो राज्य सरकार सीधे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकती है या राष्ट्रपति से संवाद कर सकती है। सरकार का मानना है कि इससे कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्रों में अस्पष्टता और संभावित टकराव की स्थिति पैदा हो सकती है।
एक अधिकारी ने बताया कि सरकार अभी विचार कर रही है कि समीक्षा याचिका किस आधार पर दायर की जाए और किन बिंदुओं को इसमें शामिल किया जाए। दूसरा अधिकारी इस बात पर जोर देता है कि याचिका दायर करने की कोई निश्चित समय-सीमा अभी तय नहीं की गई है और इसपर आगे विस्तार से चर्चा की जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट ने अपने 415 पन्नों के विस्तृत फैसले में स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदाधिकारियों को विधायी प्रक्रिया में अनावश्यक देरी नहीं करनी चाहिए। अदालत ने यह भी कहा कि अगर कोई देरी होती है तो उसका स्पष्ट कारण दर्ज किया जाना चाहिए और संबंधित राज्य सरकार को सूचित किया जाना चाहिए। साथ ही, राज्यों से भी अपेक्षा की गई है कि वे केंद्र के सुझावों पर शीघ्रता से विचार करें और उठाए गए प्रश्नों के उत्तर दें ताकि प्रक्रिया में पारदर्शिता और सहयोग बना रहे।
तमिलनाडु का रुख और विधेयकों की अधिसूचना
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद तमिलनाडु सरकार ने 10 विधेयकों को सरकारी राजपत्र में अधिसूचित कर दिया, यह मानते हुए कि राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल चुकी है। अदालत ने इन सभी विधेयकों को वैध माना और राज्यपाल द्वारा उन्हें राष्ट्रपति के पास भेजने को कानूनी रूप से त्रुटिपूर्ण करार दिया।
क्या हो सकता है आगे?
अगर केंद्र सरकार समीक्षा याचिका दाखिल करती है तो यह मामला संविधान के अनुच्छेदों की व्याख्या और संघीय ढांचे की भूमिका के लिहाज से महत्वपूर्ण बन सकता है। यह देखा जाना बाकी है कि सर्वोच्च न्यायालय अपने फैसले पर पुनर्विचार करता है या नहीं, लेकिन इतना तय है कि यह निर्णय देश के संघीय ढांचे, विधायी प्रक्रिया और कार्यपालिका की जिम्मेदारियों को लेकर नई बहस को जन्म देगा।