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Up Kiran, Digital Desk: जब दुनिया शांति की तलाश में भटक रही हो, और नेता अपने हित साधने में लगे हों, तब यह सवाल और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या एक विवादित व्यक्तित्व को शांति का सर्वोच्च सम्मान मिलना चाहिए?
डोनाल्ड ट्रंप एक ऐसा नाम जो अमेरिकी राजनीति में ध्रुवीकरण का प्रतीक रहा है, अब फिर से सुर्खियों में है, लेकिन इस बार कारण कुछ अलग है। विश्व के कई नेता, सांसद और यहां तक कि अमेरिका की एक मूल जनजाति भी उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित करने में जुटे हैं। कभी उनके समर्थक इसे ‘शांति स्थापक की वैश्विक मान्यता’ बता रहे हैं, तो आलोचक इसे ‘चापलूसी की अंतरराष्ट्रीय होड़’ करार दे रहे हैं।
ट्रंप और नोबेल: एक अधूरा सपना
अल्फ्रेड नोबेल की वसीयत के अनुसार, यह पुरस्कार केवल उसे दिया जाना चाहिए जिसने राष्ट्रों के बीच भाईचारा बढ़ाया हो या युद्ध टालने के लिए ठोस प्रयास किए हों। ट्रंप का इस पुरस्कार के प्रति आकर्षण नया नहीं है। अपने पहले कार्यकाल के दौरान उन्होंने अब्राहम समझौते को एक ऐतिहासिक उपलब्धि बताया, जिसमें इज़रायल ने संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन से औपचारिक संबंध बनाए। ट्रंप का दावा है कि उन्होंने भारत-पाक तनाव को कम करने, रवांडा और कांगो के बीच समझौता कराने, और ईरान-इज़रायल संघर्ष में हस्तक्षेप कर शांति लाने में अहम भूमिका निभाई है।
नेतन्याहू से लेकर टुनिका जनजाति तक; समर्थन की लंबी सूची
इज़रायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने वॉशिंगटन में आयोजित एक रात्रिभोज में ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित करने वाली चिट्ठी सौंपी। इस दौरान उन्होंने कहा, “यह सम्मान के साथ-साथ उचित भी है।” अफ्रीकी देशों के नेता भी ट्रंप की कूटनीतिक भूमिका की सराहना कर चुके हैं। वहीं, अमेरिकी सांसद क्लाउडिया टेनी ने सोशल मीडिया पर लिखा कि वे ट्रंप को तब तक नामांकित करती रहेंगी जब तक उन्हें यह पुरस्कार नहीं मिल जाता।
यहां तक कि लुइसियाना की टुनिका-बिलोक्सी जनजाति ने भी ट्रंप के शांति प्रयासों की प्रशंसा करते हुए उन्हें नोबेल के योग्य बताया। उनके प्रमुख मार्शल पियेराइट ने कहा, “वह वैश्विक शांति के लिए सबसे अधिक समय और प्रयास देने वाले नेता हैं।”
आलोचना और विरोधाभास
लेकिन हर समर्थन के पीछे एक छाया भी होती है। यूक्रेन के सांसद ओलेक्सांद्र मेरेझको, जिन्होंने ट्रंप को 2024 में नोबेल के लिए नामांकित किया था, ने 2025 में अपना नामांकन वापस ले लिया। उन्होंने कहा, “मैंने ट्रंप में विश्वास खो दिया है। वह यूक्रेन संकट पर मौन रहे हैं।” पाकिस्तान ने भी उन्हें नामांकित किया था, लेकिन ईरान पर अमेरिकी बमबारी के बाद विरोध दर्ज कराया। ये घटनाएं इस नामांकन की राजनीतिक प्रकृति और अवसरवाद पर गंभीर सवाल खड़े करती हैं।
शांति स्थापक या छवि सुधारक?
ट्रंप की ओर से किए गए दावों की सच्चाई भी संदेह के घेरे में है। उदाहरण के तौर पर, भारत ने स्पष्ट किया है कि भारत-पाक तनाव में कोई मध्यस्थता नहीं हुई, बल्कि वह एक सीजफायर समझौता था जिसकी पहल पाकिस्तान ने की थी। ईरान-इज़रायल युद्ध में भी ट्रंप की भूमिका स्पष्ट नहीं है, और रूस-यूक्रेन युद्ध को पहले दिन में खत्म कर देने का दावा उन्होंने बाद में मजाक कहकर टाल दिया।
विशेषज्ञों का कहना है कि यह सब एक प्रचार रणनीति का हिस्सा है, जिससे ट्रंप अपनी छवि को शांति समर्थक नेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं, विशेषकर चुनावी माहौल में।
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