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Up Kiran, Digital Desk: 15 अगस्त 1947 को जब भारत अंग्रेजों से आज़ाद हुआ, तो यह दो टुकड़ों में बंट गया। इस ऐतिहासिक घटना के पीछे कई राजनीतिक और सामाजिक कारण थे। भारत का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था। उस समय मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने 'दो-राष्ट्र सिद्धांत' का प्रस्ताव रखा, जिसमें उन्होंने कहा कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग समुदाय हैं और वे एक साथ नहीं रह सकते। हालांकि, देश में ऐसे कई मुस्लिम नेता थे जो जिन्ना के इस सिद्धांत से सहमत नहीं थे।
अक्सर यह माना जाता है कि जिन्ना और उनके समर्थकों ने भारत का बंटवारा कराया। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या भारत का हर मुसलमान बंटवारे के पक्ष में था? क्या मुस्लिम लीग वास्तव में सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती थी?
मुस्लिम लीग और आम जनता की राय
मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 में हुई थी। इसका मुख्य उद्देश्य मुसलमानों के राजनीतिक और शैक्षिक हितों की रक्षा करना था। शुरुआत में इसका मकसद भारत की आज़ादी के आंदोलन में शामिल होना नहीं था। बाद में, लीग ने खुद को मुसलमानों के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में पेश किया और 'दो-राष्ट्र सिद्धांत' के ज़रिए एक अलग देश की मांग की।
हालांकि, उस समय कांग्रेस के बड़े मुस्लिम नेता मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे कई लोग जिन्ना की इस सोच के खिलाफ थे। मौलाना आज़ाद ने 1947 में दिल्ली की जामा मस्जिद में एक भावुक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने उन मुसलमानों को फटकारा जो पाकिस्तान जा रहे थे। उन्होंने कहा कि जिस जगह पर आप सालों से रहते आए हैं, वहां आपको अचानक खतरा क्यों महसूस हो रहा है? उनके इस आह्वान पर कई लोगों ने पाकिस्तान जाने का इरादा बदल दिया था।
1946 का चुनाव और वोटिंग का सच
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि 1946 के चुनाव में ब्रिटिश भारत में मुस्लिम लीग को 75% मुस्लिम वोट मिले थे, लेकिन यह पूरी सच्चाई नहीं थी। वरिष्ठ पत्रकार एमजे अकबर बताते हैं कि उस समय सिर्फ 9% लोगों को ही वोट देने का अधिकार था। उस वक्त 'पृथक निर्वाचक मंडल' की व्यवस्था थी, जिसमें मुस्लिम उम्मीदवार को सिर्फ मुस्लिम मतदाता ही वोट देते थे। इसके बावजूद, मुस्लिम लीग पंजाब में सरकार नहीं बना सकी।
दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहासकार और सेवानिवृत्त प्रोफेसर दशमशुल इस्लाम का मानना है कि जिन्ना ने अपने राजनीतिक फायदे के लिए धर्म और उर्दू भाषा के नाम पर देश का बंटवारा कराया। उन्होंने दक्षिण भारत के मुसलमानों का ज़िक्र तक नहीं किया, क्योंकि उनका उद्देश्य आम मुसलमानों का कल्याण नहीं था। सिंध के तत्कालीन प्रधानमंत्री अल्लाह बख़्श भी जिन्ना के पाकिस्तान प्रस्ताव के सख्त विरोधी थे। उनका तर्क था कि बंटवारा मुसलमानों के हित में नहीं है, बल्कि हिंदू और मुसलमानों का एक साथ मिलकर संघर्ष करना ही सही रास्ता है।
वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई भी मानते हैं कि गरीब और आम मुसलमान भारत का बंटवारा नहीं चाहते थे। यह सिर्फ जिन्ना जैसे अमीर और राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी लोगों की साज़िश का नतीजा था। वाइसराय की रिपोर्टों में भी आम मुसलमानों की व्यक्तिगत राय का कोई ज़िक्र नहीं है, जिससे यह साबित नहीं होता कि सभी मुसलमान मुस्लिम लीग के साथ थे।
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