Up Kiran, Digital Desk: कई बार अस्पताल के कमरे में वो खामोशी छा जाती है जो सबसे ज्यादा शोर करती है। जब डॉक्टर चुप हो जाते हैं और मॉनिटर की बीप धीमी पड़ने लगती है तब परिवार वाले अक्सर पूछते हैं — "अब कितना समय है?" जवाब में कोई घंटे नहीं गिनाता। बस एक नर्स धीरे से हाथ थामकर कहती है — "अब बहुत करीब है।"
पेलिएटिव केयर में काम करने वाली विशेषज्ञों का कहना है कि शरीर जब जाने की तैयारी करता है तो वो बहुत व्यवस्थित तरीके से अपने सारे काम समेटने लगता है। जैसे कोई यात्री आखिरी स्टेशन से पहले सामान बांधता है वैसे ही शरीर भी एक-एक करके अपने अंगों को आराम देना शुरू कर देता है।
सबसे पहले भूख और प्यास गायब हो जाती है। मरीज पानी मांगना बंद कर देता है। मुंह से चम्मच लगाने पर भी निगलता नहीं। ये देखकर परिवार वाले घबरा जाते हैं कि कहीं हम कुछ गलत तो नहीं कर रहे। लेकिन सच ये है कि शरीर अब तरल पदार्थ की जरूरत नहीं समझता। जबरदस्ती पानी पिलाने से फेफड़ों में जमा हो सकता है जो और तकलीफ देगा।
फिर नींद इतनी गहरी आती है कि लगता है मरीज कोमा में चला गया है। लेकिन कई बार वो सुन तो रहा होता है। उसकी पलकें भले न उठें लेकिन हाथ दबाने पर हल्का सा दबाव महसूस होता है। ऐसे में उसके कानों में प्यार भरी बातें डालते रहना चाहिए। वो आखिरी चीज होती है जो वो इस दुनिया से ले जाना चाहता है।
सांस का बदलना सबसे साफ संकेत होता है। कभी तेज फिर अचानक रुक जाना। बीच-बीच में लंबा गैप। मुंह से एक अजीब सी घरघराहट। लोग डर जाते हैं कि मरीज दम घुट रहा है। लेकिन नर्स बताती हैं कि ये दर्द नहीं होता। ये सिर्फ गले में जमा तरल की आवाज होती है। शरीर अब इतना कमजोर हो चुका होता है कि उसे निगल नहीं पाता।
हाथ-पैर बर्फ जैसे ठंडे पड़ जाते हैं। नाक की नोक नीली। होंठ बैंगनी। त्वचा पर नीले-काले धब्बे उभर आते हैं। ये सब रक्त संचार बंद होने के संकेत हैं। शरीर अब सिर्फ दिल और दिमाग को बचाने की कोशिश कर रहा होता है। बाकी हिस्सों को छोड़ चुका होता है।
सबसे हैरान करने वाली बात ये होती है कि कई मरीज आखिरी समय में अपने मृत परिजनों से बात करने लगते हैं। "मां आ गई" या "भैया बुला रहे हैं" जैसे वाक्य बोलते हैं। पहले लोग इसे बड़बड़ाहट समझते थे। अब मेडिकल साइंस भी मानती है कि ये दिमाग का आखिरी सुकून होता है। वो लोग जिनसे वो सबसे ज्यादा प्यार करता था वो उसे लेने आते हैं।
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