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Up Kiran, Digital Desk: बिहार की राजनीति में नया मोड़ देखने को मिल रहा है। भारतीय जनता पार्टी के लिए लंबे समय से समर्थन का आधार रहा ब्राह्मण समुदाय अब खुद को हाशिए पर महसूस कर रहा है। यह असंतोष अब केवल बंद कमरे की चर्चा नहीं रह गया है, बल्कि मैदान में भी इसके संकेत मिलने लगे हैं।

भाजपा के एक हालिया आंतरिक सर्वे में यह बात सामने आई है कि अगड़ी जातियों, विशेष रूप से ब्राह्मणों में असंतोष गहराता जा रहा है। सर्वे के मुताबिक, इस समुदाय के एक हिस्से का रुझान अब प्रशांत किशोर की पार्टी जनसुराज की ओर मुड़ रहा है।

पारंपरिक समर्थन पर दरार क्यों?

भाजपा को लंबे समय से ब्राह्मण समाज का भरोसेमंद समर्थन मिलता रहा है, खासकर लालू-राबड़ी शासन के दौर से, जब सामाजिक समीकरणों ने इसे भाजपा के पाले में ला दिया था। लेकिन बदलते वक्त के साथ अपेक्षाएं भी बढ़ीं, और अब यही वर्ग खुद को पार्टी में प्रतिनिधित्व के मामले में उपेक्षित समझ रहा है।

टिकटों में असमानता से गहरा रहा असंतोष

अगर 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव की बात करें, तो भाजपा ने ब्राह्मण समुदाय से कुल 11 उम्मीदवार उतारे, जिनमें से केवल 5 जीत दर्ज कर पाए। खास बात यह रही कि मिथिला क्षेत्र के सभी चार ब्राह्मण उम्मीदवार—आलोक रंजन झा (सहरसा), विनोद नारायण झा (बेनीपट्टी), नीतीश मिश्रा (झंझारपुर), और मुरारी मोहन झा (केवटी)—विजयी रहे। जबकि शेष उम्मीदवारों में से केवल सुनील मणी तिवारी (गोविंदगंज) को जीत मिली।

वहीं भूमिहार समुदाय को 15 टिकट मिले और इनमें से 8 उम्मीदवार चुनाव जीते। राजपूतों को 21 में से 18 सीटों पर सफलता मिली और कायस्थ समाज के तीनों प्रत्याशी भी जीतने में सफल रहे। यह तुलना दर्शाती है कि ब्राह्मण समाज को टिकट और जीत दोनों के मामले में अपेक्षाकृत कम हिस्सेदारी मिली।

बंद कमरे में खुली नाराजगी की बातें

हाल ही में पटना में ब्राह्मण समाज की एक गोपनीय बैठक हुई, जिसमें राजनीतिक भविष्य को लेकर गंभीर चर्चा की गई। वहां मौजूद लोगों ने साफ तौर पर भाजपा से मोहभंग की भावना व्यक्त की और अन्य संभावित विकल्पों पर विचार किया।

जनसुराज बन रहा है नया ठिकाना?

प्रशांत किशोर की पार्टी जनसुराज धीरे-धीरे उन वर्गों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है जो खुद को पारंपरिक दलों में अनदेखा महसूस कर रहे हैं। ब्राह्मण समुदाय के बीच जनसुराज की बढ़ती पकड़ से यह स्पष्ट होता जा रहा है कि आने वाले चुनाव में भाजपा को अपने पुराने वोट बैंक को साधे रखने के लिए अतिरिक्त मेहनत करनी होगी।