
Up Kiran, Digital Desk: राजधानी दिल्ली में इस समय कूटनीतिक हलकों (Diplomatic Circles) में एक बड़ी 'डिप्लोमैटिक उलझन' चल रही है, जिसकी वजह हैं अफगानिस्तान के विदेश मंत्री। दरअसल, जब किसी देश का विदेश मंत्री किसी दूसरे देश आता है, तो उसकी अगवानी प्रोटोकॉल (Protocol) के तहत होती है, जिसमें उस देश के झंडे का सम्मान सर्वोपरि होता है। लेकिन अफगानिस्तान के मामले में यहीं पर मुश्किल खड़ी हो गई है।
झंडा बना कूटनीतिक पेंच: मामला सिर्फ इतना सा है कि अफगानिस्तान के विदेश मंत्री का औपचारिक स्वागत किस झंडे के साथ किया जाए? क्या स्वागत में शहादा वाला सफ़ेद तालिबानी झंडा (The white Taliban flag with the Shahada) इस्तेमाल होगा, जिसे तालिबान प्रशासन ने नया राष्ट्रीय प्रतीक बना लिया है? या फिर भारत तीन रंग का, पुराना, रिपब्लिकन झंडा (The old tricolor Republican flag) लगाएगा, जो आज भी दिल्ली स्थित अफगानी दूतावास पर फहरा रहा है?
भारत ने अब तक तालिबान प्रशासन (Taliban Administration) को औपचारिक रूप से मान्यता नहीं दी है। हमारी तरफ से साफ किया गया है कि अभी हमें इस पर थोड़ा और वक्त चाहिए। इसलिए, अगर हम तालिबानी झंडे का इस्तेमाल करते हैं, तो कूटनीतिक रूप से यह माना जाएगा कि भारत ने अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, तालिबान राज को अपनी मान्यता दे दी है। जाहिर है, इस कदम के कई अंतरराष्ट्रीय और घरेलू निहितार्थ (Implications) होंगे, और भारत अभी किसी तरह की जल्दबाजी नहीं चाहता।
कशमकश: मंत्री का ओहदा या तालिबानी पहचान?
यह कूटनीतिक संतुलन साधने वाला फैसला इसलिए भी कठिन हो गया है, क्योंकि अफगानिस्तान के यह विदेश मंत्री बेशक तालिबान द्वारा बनाए गए 'वास्तविक' (de-facto) प्रशासन के हिस्सा हैं, लेकिन कागजी तौर पर वह एक मंत्री का पद संभालते हैं। ऐसे में उन्हें सामान्य विदेशी मंत्री जैसा औपचारिक सम्मान मिलना भी जरूरी है, लेकिन उनकी राजनीतिक पहचान के कारण भारत पूरी सावधानी बरत रहा है।
कुल मिलाकर, इस दौरे से पर्दे के पीछे के बहुत सारे संदेश छिपे हैं। भारत अफगानिस्तान के लोगों से संवाद और मदद बनाए रखना चाहता है, लेकिन वह अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर किसी भी खेमे के लिए असहज स्थिति पैदा करने से बचना चाहता है। इसलिए, सबकी निगाहें इसी बात पर टिकी हैं कि भारत इस यात्रा के दौरान क्या रास्ता चुनता है, क्योंकि एक छोटा सा झंडा, इस पूरी कूटनीतिक दिशा को बदल सकता है।