यूपी किरण डेस्क। भारत में चुनाव को लोकतंत्र के महापर्व के तौर पर देखा जाता है। यहां पर चुनावों के दौरान विविध पृष्ठभूमि के उम्मीदवार चुनाव मैदान में होते हैं। चुनावी रंग भी दिलचस्प होते हैं। प्रचार के तरीके भी लोगों को लुभाते हैं। इस दौरान लोक कलाकारों की भी अहमियत बढ़ जाती है। मंचों से भड़काऊ भाषण के साथ असंसदीय शब्दों का भी प्रयोग आम है। नव्बे के दशक से चुनावों में 'संदूक के साथ बंदूक' की भी अहमियत बढ़ी।
इसके साथ ही रंगारंग रैलियां, साइकिल रैली, पोस्टर वार, बैनर, झंडे आदि। इधर कुछ चुनावों से रोड शो का चलन भी बढ़ा है। कुल मिलाकर नेताओं और पार्टियों के हर अच्छे बुरे हथकंडे चुनाव का रोमांच ही बढ़ाते हैं। एक और दिलचस्प तथ्य है, भारत में हर उम्मीदवार चुनाव जीतने के इरादे से ही मैदान में नहीं उतरता है। कुछ उम्मीदवार हारने के लिए भी चुनाव लड़ते हैं।
सत्तर और अस्सी के दशक में गांवों से झुंड की झुण्ड महिलायें अपनी पार्टी या फिर उम्मीदवार के लिए गीत जाती हुई मतदान करने जाती थी। ' चला सखी वोट दई आई, मोहर ..... पे लगाई,' जैसे गीत चुनावी माहौल को खुशनुमा बनाते थे। प्रचार में लोक कलाकारों की भूमिका भी अहम होती थी। उम्मीदवार कलाकारों पर भरोसा भी करते थे। अभी दो दशक पहले तक पंपलेट प्रचार के मुख्य साधन थे। तमाम उम्मीदवार पंपलेट पर अच्छी खुशबू वाली इत्र लगाकर मतदाताओं को वितरित करते थे। इन महकते पंपलेटों को मतदाता जेब में रख लेते थे।
वर्ष 1998 में लखनऊ लोकसभा सीट से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ बतौर निर्दल उम्मीदवार सरबला बाबा चुनाव लड़ रहे थे। चुनाव प्रचार के दौरान एक बार सरबला बाबा राजभवन के सामने स्थित एक पेड़ पर चढ़ गए। वो आरोप लगा रहे थे कि अटल जी की तरफ से चुनाव आचार संहिता का उललंघन किया जा रहा है। प्रशासन इस पर कुछ नहीं कर रहा है। देखते ही देखते राजभवन के सामने अच्छी खासी भीड़ जुट गयी और सरबला बाबा भीड़ को संबोधित करने लगे।
इस पर प्रशासन के हाथपांव फूल गए। अधिकारियों ने किसी तरह से सरबला बाबा को मनाकर पेड़ पर से उतारा। इस घटना के कई वर्ष बाद एक दिन हज़रतगंज स्थित इंडियन काफी हाउस में सरबला बाबा ने कहा कि ये सब उनके प्रचार के तरीके थे। धन के अभाव में इतनी भीड़ मुफ्त में ऐसे ही जुताई जाती है।
इसी तरह चुनाव के अपने विविध रंग और ढंग हैं। ये भी दिलचस्प है कि यहां पर हर उम्मीदवार चुनाव जीतने के लिए ही नहीं लड़ता है। कुछ लोग हारने के लिए भी संघर्ष करते हैं। काका जोगिन्दर सिंह उर्फ़ 'धरती पकड़' का नाम भला कौन नहीं जानता। 'धरती पकड़' स्थानीय निकाय से लेकर राष्ट्रपति तक का चुनाव लड़ते थे। नामांकन के बाद वह पैदल ही प्रचार के लिए निकलते थे। उनके हाथ में एक छोटी सी घंटी होती थी। घंटी बजाते हुए 'धरती पकड़' कहते थे, ' काका को हराइये, खुशियां मनाइये।' काक की आवाज सुनते भी आम लोग कौतूहल से उनके पास एकत्र हो जाते थे।
इस तरह काका जोगिंदर सिंह 'धरती पकड़' ने लगातार चुनाव लड़ने का रिकार्ड कायम किया। उन्होंने पहला चुनाव 1962 में लड़ा था और दिसंबर, 1998 में निधन से पहले तक वे 300 से अधिक चुनाव लड़ चुके थे। 'धरती पकड़' को देश में सभी जानते थे। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि, वो कहीं भी जाते थे तो लोग उन्हें घेर लेते थे। 'धरती पकड़' भी सभी से खूब हंसी मजाक करते थे।
'धरती पकड़' के बाद के. पद्मराजन का नाम आजकल चर्चा में रहता है। के. पद्मराजन तमिलनाडु के सेलम ज़िले के मेट्टूर के रहने वाले हैं। पद्मराजन भी हारने के लिए ही चुनाव लड़ते हैं। पद्मराजन अब तक 12 राज्यों में अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों से कुल 239 चुनाव लड़ चुके हैं। इसमें विधानसभा, लोकसभा और राष्ट्रपति पद का चुनाव भी शामिल है। इस बार पद्मराजन लोकसभा चुनाव के लिए तमिलनाडु की धर्मपुरी सीट से अपना नामांकन दाख़िल कर चुके हैं।
इतने वर्षों से लगातार चुनाव लड़ने और हारने के चलते पद्मराजन का नाम लिम्का बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स में सबसे ज़्यादा चुनाव हारने वाले उम्मीदवार के तौर पर दर्ज हो चुका है। फिलहाल, उनका इरादा अब सबसे ज़्यादा चुनाव लड़ने के लिए गिनीज़ बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स में शामिल होना है। 'धरती पकड़' की ही तरह पद्मराजन भी तेजी से लोकप्रिय हुए हैं।
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