जब सड़कें सूनी होती हैं तो संसद आवारा हो जाती है। यह नारा प्रख्यात समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने दिया था। वह संसद से लेकर सड़क तक लोक चेतना की अलख जगाने वाले समाजवादी विचारों के जनक थे जो बराबरी और समानवेशी समाज चाहते थे... प्रख्यात कहानीकार मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में भी व्यवस्था से लड़ने की गजब की छटपटाहट दिखती है.....मुंशी जी मानते थे कि हर शख्स में व्यवस्था व अन्याय के लड़ने का गुण जन्मजात नहीं होता बल्कि वह परिस्थितिजन्य होता है। बकौल मुंशीजी, उचित मजदूरी न मिल पाने के कारण श्रम से विरक्ति पैदा होने लगती है। यह मार्क्स की ‘एलियनेशन थियेरी’ है जिसको प्रेमचंद ने किसानों-मजदूरों के संदर्भ में समझने और समझाने की कोशिश की है।
पेंशन, ठेके की नौकरियां, ठेके पर शिक्षक, ठेके पर चिकित्सक, बैंकों की लूट, जीएसटी जैसे कानून बनाकर खून का कतरा-कतरा नोच लेने की तमन्ना और चंद पूंजीपतियों के लिए देश की नदियों, पहाड़ों, जंगलों, खलिहानों व खजानों को बेंच देने पर आमादा सत्ता से यदि नहीं टकराया गया तो हालात इतने भयावह हो जायेंगे कि आप सांस भी नहीं ले पायेंगे। मुंशी प्रेमचंद ने अपनी 20 साल पुरानी सरकारी नौकरी को अलविदा कह कर गांधी जी के असहयोग आंदोलन से खुद को जोड़ा और यह भी नहीं सोचा कि घर में रोटी कैसे आयेगी....बकौल मुंशीजी--" .....लोग कहते हैं कि आन्दोलनों, धरना, प्रदर्शन, जुलूसों से क्या होता...इससे लगता है हम जिंदा हैं।"
लाखों की संख्या में जब दिल्ली में पूरे देश से पेंशन और स्थाई नौकरियों की मांग को लेकर लोग जुटे और देश का पूरी तरह से नीलाम हो चुका मीडिया सिरे से खामोशी ओढ़ गया, तभी मैं समझ गया था कि ये आन्दोलन बहुत बड़ा होगा और पूरे देश में फैलेगा....और एक दिन सड़क, पानी, बिजली, रेल, हवाई जहाज, कल-कारखाने....सब ठहर जायेंगे ...। भारतीय बिकाऊ मीडिया को यह गुमान था कि मुर्गा बांग नहीं देगा तो सुबह नहीं होगी....सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर दिल्ली का यह आन्दोलन छाया और चर्चा का विषय बना।
पुरानी पेंशन योजना यानी ओल्ड पेंशन स्कीम (OPS) के तहत सरकार साल 2004 से पहले कर्मचारियों को रिटायरमेंट के बाद एक निश्चित पेंशन देती थी। यह पेंशन कर्मचारियों के रिटायरमेंट के समय उनके वेतन पर आधारित होती थी। इस स्कीम में रिटायर हुए कर्मचारी की मौत के बाद उनके परिजनों को भी पेंशन दी जाती थी। इस स्कीम को 1 अप्रैल 2004 में बंद करके इसे राष्ट्रीय पेंशन योजना (National Pension Scheme.. NPS) में बदल दिया गया। ओपीएस बुढ़ापे का बड़ा सहारा थी और इसके अनेक लाभ थे-इस स्कीम के तहत कर्मचारियों को रिटायरमेंट के समय उनके वेतन की आधी राशि पेंशन के रूप में दी जाती है।
पुरानी पेंशन स्कीम में अगर रिटायरमेंट के बाद कर्मचारी की मृत्यु हो जाए तो उनके परिजनों को पेंशन की राशि दी जाती है। इस स्कीम में पेंशन देने के लिए कर्मचारियों के वेतन से किसी भी तरह की कटौती नहीं होती है। पुरानी पेंशन स्कीम में रिटायरमेंट के समय कर्मचारियों की अंतिम बेसिक सैलरी का 50 फीसदी यानी आधी राशि तक पेंशन के रूप में दिया जाता है। इस स्कीम के जरिये रिटायरमेंट के बाद मेडिकल भत्ता और मेडिकल बिलों की रिम्बर्समेंट की सुविधा भी दी जाती है। इस स्कीम में रिटायर्ड हुए कर्मचारी को 20 लाख रुपये तक ग्रेच्युटी की रकम दी जाती है.... लेकिन यह सब बंद कर दिया गया...। विधायकों और सांसदों ने अपने लिए तो हर तरह की सुविधा और सुरक्षा रखी लेकिन अपने जीवन के 30-35 साल लेने वाले कर्मचारियों को मरने के लिए छोड़ दिया।
गौरतलब है कि वर्ष 2004 में केन्द्र की तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने पुरानी पेंशन व्यवस्था खत्म कर दी थी। इसके तहत अप्रैल 2005 के बाद नियुक्त होने वाले कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन स्कीम को बंद कर दिया गया..। अब यह आन्दोलन तेजी पकड़ रहा है। इसमें युवा, छात्र, सेना, अर्द्धसैनिक बल, विभिन्न विभागों के कर्मचारी सभी जुड़ रहे हैं ..बस इसे एक योजनाबद्ध तरीके से चलाने की जरूरत है। जैसे सरकार ने धर्म का जहर फैलाने के लिए बाबाओं, आश्रमों, मठों का सहारा लिया है ठीक वैसे ही शिक्षकों, लेक्चररों, प्रोफेसरों को चाहिए कि वे युवाओं और छात्रों के बीच केवल पेंशन स्कीम ही न समझायें, उन्हें पूंजीवादी व्यवस्था के भयावह खतरों, खत्म होती नौकरियों, डूबतीं अर्थव्यवस्था, टूटती सामाजिक समरसता, सत्ता के दलालों द्वारा प्लेसमेंट एजेंसियां बनाकर ठेके पर नौकरियों के मकड़जाल ...के बारे में बतायें..!!
जो लोग गांवों से जुड़े हैं वो दो-दो, तीन-तीन गांवों में जायें, कस्बों में जायें, लोगों के बीच छोटी-छोटी सभायें करें, किसानों व मजदूरों को जगायें ... रिटायर्ड या कामकाजी महिलाएं भी इस अनुष्ठान में लगें, जिन युवाओं को सच समझ आने लगे उन पर जिम्मेदारी डालें कि वो आगे चेन बनाये...अगर संभव हो तो पैम्फलेट छापें, बसों, रेल, स्कूल, कालेजों, बाजारों...में बांटे ....एक राष्ट्रव्यापी वैचारिक आंदोलन की भूमिका बनायें.....। चूंकि आपके आन्दोलन को कोई भी चैनल या अखबार सपोर्ट नहीं करेगा ऐसे में लाखों की संख्या में यूट्यूब प्लेटफार्म बनायें, फेसबुक पर सक्रिय हों, ट्वीटर का उपयोग करें..... अंतरराष्ट्रीय मीडिया का ध्यान खींचे.... चिन्हित करें उन पत्रकारों को जो लगातार सरकार की नीतियों के खिलाफ लिख रहे हैं...उनसे संपर्क करें.....ये लड़ाई आसान नहीं है...ये अंग्रेजी हुकूमत से लड़ी गई लड़ाईयों से भी ज्यादा बड़ी और कड़ी लड़ाई है..... बच्चों से लेकर युवाओं और प्रौढ़ों से लेकर बुजुर्गों तक आपको जोड़ना होगा।
आप की लड़ाई सबसे पहले होगी जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों व व्यवस्था से पूरी तरह कट चुके भारतीय मीडिया से जो कि वर्तमान में विशुद्ध दलाली की स्थिति में है। रेलवे व बस के कर्मचारी बहुत बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं। लाखों लोग रोज सफर करते हैं बस जरूरी है उनसे कनेक्ट होने की....लोग बसों के भीतर, रेल के डिब्बों में जाकर लोगों को सच बतायें और जोड़ें....इस लड़ाई को बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से लड़ें जाने की जरूरत है क्योंकि आप के बीच ही हजारों ऐसे लोग होंगे जो मजे तो पुरानी पेंशन के मार रहे होंगे लेकिन सरकार के गुणगान गा रहे होंगे....ऐसे लोगों को चिन्हित करके उन्हें सीधे आन्दोलन से बाहर करें क्योंकि वो आपके आंदोलन के घुन हैं.....जिस दिन आप यह बताने में सफल हो गये कि देश का हर नागरिक तबाह होने वाला है और हो रहा है...युवा और किसान, जवान को बताने में कामयाब हो गये कि अभी नहीं संभले तो सब कुछ तबाह हो जायेगा...आप लड़ाई जीत लेंगे। आप को लोगों को बताना होगा कि भारतीय मीडिया से दूर रहें....वह एक महामारी की तरह है...आप की लड़ाई आसान हो जायेगी...। रेल के लोग, लोगों को बतायें कि आम जनता की ट्रेनें कहां हैं? किस हालत में हैं?
जब देश में 80 करोड़ लोग पांच किलो अनाज ले रहे हों तो वहां नमो ट्रेंन और वंदे भारत ट्रेनों का मतलब क्या है? बतायें कि ट्रेनें डिरेल क्यों हो रही हैं क्योंकि रेलवे संरक्षा के लाखों पद खाली हैं, बैंक के कर्मचारी बतायें कि कि कैसे अडानी और तीन दर्जन भगोडे़ गुजरातियों का करोड़ों का कर्ज आप चुका रहे हैं, किसान नेता किसानों को समझायें, शिक्षक तबाह की जा रही शिक्षा व्यवस्था के बारे में बतायें...सेना के लोग युवाओं को बतायें और जो सेना में हैं उनको समझायें......महिलाएं, महिलाओं को समझायें कि घर से सुंदर न कोई मंदिर है न आश्रम है, पति और परिवार किसी बाबा-ढाबा से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है.....बंद कर दीजिए अखबार खरीदना और चैनलों को देखना.....यानी हर वर्ग उतरे तब जाकर माहौल बनेगा.…।
लोकतंत्र के लिए लड़ी गई लड़ाई कभी भी एक काल और किसी एक समाज से जुड़ी नहीं रही है....वह आपकी हमारी पीढ़ियों की लड़ाई होती है...उनके उज्जवल और खुशहाल भविष्य की लड़ाई होती है और अपने पूर्वजों पर गर्व करने की लड़ाई होती है..... अगर हमारे पूर्वजों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई न लड़ी होती तो आज भी हम आजाद नहीं हुए होते..आज की यह लड़ाई पूंजीवादी और अलोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ है....यह लड़ाई उनके खिलाफ है जो 1857 से लेकर असहयोग आंदोलन और अंग्रेजों भारत छोड़ो की लड़ाई तक में भी अंग्रेजी हुकूमत के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े थे...। मुझे मुंशीजी के गोदान का एक पात्र याद आ रहा है जो कहता है-"डेमोक्रेसी, व्यवहार में बड़े-बडे़ व्यापारियों और जमींदारों का राज है।'' मेहता भी मानते हैं कि ''आज संसार का शासन-सूत्र बैंकरों के हाथ में है।'..जब भी जनता के बीच जाइए तो तथ्यों और आंकड़ों व संदर्भों के साथ जाइए....और भावनात्मक अपील के साथ जाइए.... यक़ीनन आप लड़ेंगे और जीतेंगे भी.....
(लेखक पवन सिंह स्वतंत्र लेखन से जुड़े वारिष्ठ पत्रकार हैं, ये लेख उनकी Facebook से लिया गया है)
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