साधना का अनूठा पर्व है निर्जला एकादशी

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सनातन धर्मग्रंथों में निर्जला एकादशी पर्व को आत्मसंयम की साधना का अनूठा पर्व माना गया है। निर्जला एकादशी की उपासना का सीधा संबंध एक ओर जहां पानी न पीने के व्रत की कठिन साधना है, वहीं आम जनता को पानी पिलाकर परोपकार की प्राचीन भारतीय परंपरा भी।  निर्जला एकादशी जेष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को पड़ती है। ज्येष्ठ मास की भीषण गर्मी में पूरे एक दिन एक रात तक बिना पानी के रहना भारतीय उपासना पद्धति में कष्ट सहिष्णुता की पराकाष्ठा है।

इस दिन मठ, मंदिर एवं गुरुद्वारों में कथा प्रवचन धार्मिक अनुष्ठान एवं शबद कीर्तन आदि के कार्यक्रम दिन भर चलते हैं। शीतल जल के छबीले लगाकर राहगीरों को बुला-बुला कर बड़ी आस्था के साथ पानी पिलाया जाता है। व्रतधारी लोगों के लिए यह एक कठिन परीक्षा है। साधना में यही होता है कि साधक के सम्मुख सारे भोग पदार्थ स्वयमेव उपस्थित हो जाते हैं। वस्तु प्रदार्थ उपलब्ध होते हुए उनका त्याग करना ही त्याग है। अतः इस उपासना का सीधा संबंध खुद प्यासे रहकर आम जनता को पानी पिलाकर परोपकार की प्राचीन भारतीय परंपरा से है।

निर्जला एकादशी के बारे में कहा गया है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु इन पांच तत्वों से ही मानवदेह निर्मित होता है। अतः पांचों तत्वों को अपने अनुकूल बनाने की साधना अति प्राचीन काल से हमारे देश में चली आ रही है। अतः निर्जला एकादशी अन्नमय कोश की साधना से आगे जलमय कोश की साधना का पर्व है। पंचतत्वों की साधना को योग दर्शन में गंभीरता से बताया गया है। साधक जब पांचों तत्वों को अपने अनुकूल कर लेता है तो वह शारीरिक और मानसिक पीड़ा से मुक्त हो जाता है। इसके साथ ही समाज में एक-दूसरे के प्रति सहयोग की भावना भी पल्ल्वित होती है।

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