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Up Kiran, Digital Desk: राजस्थान के ऐतिहासिक शहर अजमेर में जहाँ अरावली की पहाड़ियाँ अपनी चुप्पी में भी सदीयों की कहानियाँ समेटे हुए हैं वहीं स्थित राजकीय मेडिकल कॉलेज की प्रयोगशाला में एक ऐसा शोध सामने आया है जो आधुनिक विज्ञान और प्राचीन परंपराओं के बीच की खाई को पाटता नजर आता है।
माइक्रोबायोलॉजी विभाग की अध्यक्ष डॉ. विजयलता रस्तोगी एक सधे हुए वैज्ञानिक की दृष्टि और एक जिज्ञासु मन की संवेदनशीलता के साथ — जब इस शोध की अगुवाई कर रही थीं तो उनके मन में एक ही प्रश्न बार-बार गूंज रहा था: क्या हमारी परंपराओं में वह वैज्ञानिक आधार भी है जिसे हम वर्षों से अनदेखा करते आए हैं।
इसी जिज्ञासा से प्रेरित होकर उन्होंने अपनी टीम के साथ एक व्यवस्थित और नियंत्रित वातावरण में अध्ययन प्रारंभ किया। प्रयोगशाला की सफेद टाइलों और स्टील की ठंडी सतहों के बीच जब शुद्ध देशी घी, कपूर और अनेक औषधीय जड़ी-बूटियों से युक्त हवन सामग्री अग्निकुंड में प्रज्वलित हुई तो उठते धुएँ की लहरों में विज्ञान और अध्यात्म जैसे घुलकर एक हो गए।
शोध में पाया गया कि गुणवत्तापूर्ण हवन सामग्री से निकला धुआँ न केवल वातावरण में मौजूद बैक्टीरिया को नष्ट करता है बल्कि वह शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय कर उसे मजबूत भी करता है। यह धुआँ केवल एक गंध नहीं बल्कि जीवन के लिए सुरक्षाकवच बन जाता है — जो नाक मुँह और त्वचा के सूक्ष्म छिद्रों से शरीर में प्रवेश कर भीतर के रोगाणुओं को निष्क्रिय करने का कार्य करता है।
डॉ. रस्तोगी के शब्दों में "हवन केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि एक जीवंत औषधीय प्रक्रिया है जिसे हमने युगों से आत्मिक शुद्धि के लिए अपनाया। आज यह सिद्ध हो रहा है कि वह शुद्धि शारीरिक भी थी।"
इस शोध को भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) द्वारा भी मान्यता मिलना न केवल वैज्ञानिक समुदाय में इसकी विश्वसनीयता को दर्शाता है बल्कि भारतीय पारंपरिक ज्ञान की वैज्ञानिक पुनर्व्याख्या की ओर एक निर्णायक कदम भी है।
सरकार द्वारा इस प्रौद्योगिकी को पेटेंट कर इसके प्रचार-प्रसार और अनुप्रयोग हेतु 30 लाख रुपये का बजट आवंटित किया गया है। यह केवल एक आर्थिक सहायता नहीं बल्कि उस विश्वास की अभिव्यक्ति है जो भारत की जड़ों में छिपे ज्ञान पर फिर से कायम हो रहा है।
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