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Up Kiran, Digital Desk: गुरु नानक देव जी का जीवन एक ऐसी यात्रा थी जिसने न सिर्फ एक नए धर्म की नींव रखी, बल्कि करोड़ों लोगों को जीने का एक नया नजरिया भी दिया। उनका पूरा जीवन मानवता की सेवा और ईश्वर के संदेश को फैलाने में बीता। आज हम उनके प्रकाश पर्व के मौके पर उस पवित्र मार्ग को याद कर रहे हैं, जो पंजाब के सुल्तानपुर लोधी से शुरू होकर करतारपुर साहिब में पूरा हुआ। यह सिर्फ एक भौगोलिक सफर नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक यात्रा थी।

सुल्तानपुर लोधी: जहां ज्ञान का सूरज उगा

सुल्तानपुर लोधी गुरु नानक देव जी के जीवन का शुरुआती और सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव था। यहां वह अपनी बहन बेबे नानकी के पास आकर बसे थे। इसी पवित्र धरती पर उन्होंने दौलत खान लोधी के मोदीखाने (अनाज भंडार) में एक ईमानदार स्टोरकीपर के रूप में काम किया। यहीं उनका विवाह माता सुलखनी जी से हुआ और उनके दो पुत्रों, श्री चंद और लखमी दास का जन्म हुआ।

लेकिन सुल्तानपुर लोधी को सबसे ज्यादा उस घटना के लिए याद किया जाता है जिसने दुनिया को एक नया रास्ता दिखाया। यहीं पास में बहने वाली काली बेई नदी में स्नान करते हुए गुरु नानक देव जी तीन दिनों के लिए ध्यान में ऐसे लीन हुए कि लोगों ने मान लिया कि वह डूब गए हैं। लेकिन जब वे तीसरे दिन बाहर आए, तो उनके मुख पर एक दिव्य तेज था और उनका पहला संदेश था ना कोई हिंदू, ना मुसलमान। यहीं से उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और यहीं से उनकी महान आध्यात्मिक यात्रा, यानी 'उदासियों' की शुरुआत हुई।

उदासियां मानवता के लिए मीलों लंबा सफर

ज्ञान प्राप्त करने के बाद, गुरु नानक देव जी ने सांसारिक जीवन को त्यागकर लोगों को एक ईश्वर, समानता और प्रेम का संदेश देने के लिए यात्राएं शुरू कीं। भाई मरदाना के रबाब की धुन के साथ उन्होंने लगभग 28,000 किलोमीटर का पैदल सफर तय किया।

उनकी ये यात्राएं किसी एक दिशा या धर्म तक सीमित नहीं थीं। वह पूर्व में हरिद्वार, बनारस और असम तक गए, तो पश्चिम में मक्का-मदीना और बगदाद तक पहुंचे। उत्तर में उन्होंने तिब्बत के ऊंचे पहाड़ों की यात्रा की, तो दक्षिण में श्रीलंका तक मानवता का संदेश पहुंचाया। इन यात्राओं के दौरान उन्होंने हर धर्म के संतों, विद्वानों और आम लोगों से संवाद किया और समाज में फैले पाखंड, अंधविश्वास और जाति-पाति का खंडन किया।

करतारपुर साहिब: जीवन का सार और अंतिम पड़ाव

अपनी लंबी यात्राओं को पूरा करने के बाद, गुरु नानक देव जी ने अपने जीवन के अंतिम 18 वर्ष रावी नदी के किनारे बिताए। उन्होंने यहां एक नगर बसाया, जिसे करतारपुर यानी 'करतार (ईश्वर) का शहर' नाम दिया। यह उनके जीवन और उनकी शिक्षाओं का सार था।

यहां उन्होंने एक किसान का जीवन अपनाया। वह खुद खेती करते और लोगों को भी 'किरत करो' (ईमानदारी से मेहनत करो) का संदेश देते। यहीं पर उन्होंने 'संगत' (एक साथ बैठकर ईश्वर का भजन करना) और 'पंगत' (बिना किसी भेदभाव के एक साथ बैठकर लंगर छकना) की नींव रखी।

करतारपुर सिर्फ एक नगर नहीं था, यह गुरु नानक देव जी के सिद्धांतों की एक जीती-जागती प्रयोगशाला थी, जहां उन्होंने 'नाम जपो' (ईश्वर का नाम जपो) और 'वंड छको' (मिल-बांटकर खाओ) के आदर्शों को सच करके दिखाया। 22 सितंबर, 1539 को इसी पवित्र भूमि पर वह ज्योति-जोत में समा गए।

आज सुल्तानपुर लोधी से लेकर करतारपुर साहिब तक का यह मार्ग करोड़ों लोगों के लिए एक पवित्र तीर्थ है। यह हमें याद दिलाता है कि सच्चा धर्म मानवता की सेवा में है और ईश्वर का वास हर इंसान के दिल में है।