जम्मू-कश्मीर की सियासत का ऊंट किस करवट बैठेगा

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जम्मू-कश्मीर की सियासत का ऊंट किस करवट बैठेगा, इसके लिए संभवत: अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव तक इंतजार करना होगा। केंद्र सरकार का इरादा लोकसभा चुनाव तक वहां राज्यपाल शासन जारी रखने और इस दौरान आतंकवाद के खिलाफ सख्ती दिखा कर सियासी लाभ हासिल करने का है। राज्य में सीटों का समीकरण इस कदर उलझा है कि वहां किसी भी दल के लिए सरकार बनाने का रास्ता आसान नहीं है। वैसे भी भाजपा के समर्थन वापस लेते ही महबूबा मुफ्ती का इस्तीफा और कांग्रेस-नेशनल कांफ्रेंस का गठबंधन से इंकार करने से यह साफ हो गया है कि सूबे में राज्यपाल शासन लंबा खिंचेगा।
Image result for J&K: राज्यपाल शासन के तहत आतंकवाद

पीडीपी से समर्थन वापस लेने के बाद हालांकि वर्तमान राज्यपाल एनएन वोहरा का कार्यकाल बढ़ा दिया गया है। मगर सरकार में उच्च स्तर पर नए राज्यपाल की नियुक्ति की संभावना पर भी विमर्श हो रहा है। भाजपा का मानना है कि सेना के खिलाफ पीडीपी के अभियान और पत्थरबाजों के खिलाफ हुए एफआईआर वापस लेने जैसे फैसले का भाजपा को जम्मू-लद्दाख संभाग और सूबे के बाहर सियासी नुकसान हुआ है। इस सियासी नुकसान की आतंकवाद के खिलाफ सख्ती दिखा कर ही की जा सकती है। इसका सीधा सा संदेश है कि सूबे में पहले से ही आतंकियों के खिलाफ ऑपरेशन ऑल आउट को और सख्ती से चलाया जाएगा।

जहां तक राज्य विधानसभा में सीटों का समीकरण है तो यह बेहद उलझा हुआ है। भाजपा का पीडीपी का साथ छोड़ने के बाद किसी भी दल के लिए गठबंधन बनाना आसान नहीं होगा। दरअसल 87 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा 44 है। पीडीपी के पास 28, भाजपा के पास 25, एनसी के पास 15, कांग्रेस के पास 12 और अन्य के पास 07 विधायक हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि नई सरकार बनाने के लिए पीडीपी, कांग्रेस और एनसी तीनों को साथ आना होगा। इसमें एनसी और पीडीपी के हाथ मिलाने की संभावना दूर-दूर तक नहीं है।

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