यूपी किरण डेस्क। भारत में अस्सी और नब्बे के दशकों में हुए चुनावों में लोकतंत्र का पर्व मना चुके लोगों को आज लगता ही नहीं कि देश में लोकसभा चुनाव हो रहे हैं। सियासत में रूचि रखने वाले लोगों के मुताबिक़ ये आजाद भारत का सबसे नीरस और उबाऊ चुनाव है। न तो कहीं लाउडस्पीकरों का शोर सुनाई दे रहा है और न ही बाजारों और नुक्क्ड़ों पर बैनर और होर्डिंग्स। पोस्टरों से पटी दीवारें भी नहीं नजर आ आ रही हैं। रैलियों का वो रेला भी अब इतिहास हो चूका है। विभिन्न सियासी पार्टियों के उम्मीदवारों के बीच स्वस्थ चुहलबाजी की जगह घिनौनी टिप्पणियों और आपत्तिजनक मीम्स ने ले लिया है।
देश में लोकसभा चुनाव का पहला चरण सपन्न हो गया है। मुख्य मुकाबला भारतीय जनता पार्टी नीट एनडीए गठबंधन और कांग्रेस नीट इंडिया महागठबंधन के बीच है। जनसभाओं और रोड-शो का दौर जारी है। इसके बावजूद चौपालों और चौराहों पर हो रही बहस में अपेक्षित गर्माहट नहीं है। आम जनता चुनाव से जुड़ीं खबरों में रुचि नहीं ले रही है। लखनऊ के इंडियन काफी हॉउस में सियासी विमर्श शांत हो चुका है। प्रयागराज होने के बाद इलाहाबाद की सियासी चकाचौंध सरस्वती की तरह विलीन हो चुकी है।
हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि अब चुनाव प्रचार नहीं हो रहा है। उम्मीदवारों के पास धन का अभाव भी नहीं है। पैसा भी बहाया जा रहा है। दरअसल, चुनाव प्रचार पूरी तरह से डिजिटल हो चूका है। सियासी पार्टियां और उम्मीदवार डिजिटल एडवरटाइजिंग में जमकर खर्च कर रहे हैं। प्रचार आरोप - प्रत्यारोप, गारंटी - वारंटी वगैरह चौक-चौराहों, सड़कों से सीधे आम लोगों के मोबाइल में पहुंच रही है।
याद कीजिये, इस जम्हूरी त्योहार के समय पहले चुनाव प्रचार के घंटे तय होते थे। रात को 10 बजे के बाद लाउडस्पीकर नहीं बजाया जा सकता था। लेकिन आज के इस डिजिटल दौर में प्रचार का तरीका भी बदल गया है। आज डिजिटल विज्ञापनों के जरिए चौबीसों घंटे जमकर प्रचार हो रहा है। हर कोइ देश के प्रधान प्रचारक की गारंटियों का मजा ले रहा है। देश में दस सालों से सत्तारूढ़ बीजेपी के लीडरान अपनी उपलब्धियों का बखान करने के बजाय पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों की खाल उघेड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
कांग्रेस की सियासी शैली कुछ हद तक जमीनी और बुनियादी नजर आ रही है। राहुल गांधी के चेहरे पर संघर्ष के साथ उत्साह भी छलक रहा है। वहीँ हर बात की गारंटी देने वाले पीएम मोदी के बोल और बॉडीलैंगेज इस बार बे-असर लग रही है। रैलियों में उनके भाषण विपक्षी नेता की तरह होते हैं। इन हालातों में आम मतदाता खासकर युवा और कामकाजी तबका इस बार उदासीन नजर आ रहा है। इस सन्नाटे और उदासीनता के बावजूद आम लोग परिवर्तन के आकांक्षी भी हैं। ऐसा अब साफ़ लगने लगा है।
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