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लखनऊ ।। यूपी में साल 2003 में सपा सरकार के 4 साल के दौरान बसपा अध्यक्ष मायावती तत्कालीन सीएम मुलायम सिंह यादव के सामने एक बड़ी चुनौती थीं। मायावती ने न सिर्फ सेंट्रल यूपी, बल्कि मुलायम सिंह यादव के गृहनगर इटावा (लखना) में भी अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज कराई थी।
तो वहीं मायावती ने साल 2007 में इटावा की लखना सीट पर भीमराव अंबेडकर को प्रत्याशी बनाया था। अगर मकसद राजनीतिक धारणाएं बनाने और विरोधियों को मैसेज पहुंचाने का है, तो मायावती इसमें सफल हुई हैं। क्योंकि, उन्होंने मुलायम के गढ़ माने जाने वाले इटावा की लखना सीट से बसपा प्रत्याशी की जीत सुनिश्चित की थी।
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साल 2018 में बसपा अध्यक्ष मायावती राज्यसभा की लड़ाई लड़ रही हैं, जो संभवत: उनकी सबसे मुश्किल राजनीतिक लड़ाई है। यह लड़ाई यूपी की दसवीं राज्यसभा सीट के लिए है। माया ने इस सीट पर भीमराव अंबेडकर को प्रत्याशी बनाया है।
तो वहीं साल 2018 के राज्यसभा चुनाव के लिए भीमराव अंबेडकर को बीएसपी प्रत्याशी चुनने के पीछे मजबूत ऐतिहासिक कारण भी हैं। यह इतिहास दलित हित से जुड़ा हुआ है।
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आपको बता दें कि बंटबारे के बाद अंबेडकर के निर्वाचन क्षेत्र, जेस्सॉर और खुलना पूर्व-पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) का हिस्सा बन गए। हालांकि, बॉम्बे प्रांत में एक सीट खाली होने के कारण बाद में कांग्रेस ने इसे स्वीकृति दे दी।
हालांकि, 1952 में पहले लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने दलित नेता अंबेडकर के खिलाफ उनके पूर्व सहयोगी नारायण कजरोलकर को खड़ा किया। इस चुनाव में अंबेडकर 15 हजार से अधिक वोटों से हार गए।
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लोकसभा चुनाव हारने के 2 साल बाद अंबेडकर ने फिर से कोशिश की। मौका था भंडारा लोकसभा क्षेत्र के उपचुनाव का। इस उपचुनाव में भी कांग्रेस प्रत्याशी ने बड़े अंतर से जीत हासिल की।
पहली लोकसभा चुनाव के 70 साल बाद बसपा ने एक बार फिर भीमराम अंबेडकर को राज्यसभा चुनाव के लिए प्रत्याशी बनाया है, ताकि अपने चुनावी क्षेत्रों में संदेश भेज सके। अगर अंबेडकर जीतते हैं, तो मायावती 1952 में हुए अन्याय का सांकेतिक रूप से बदला ले लेंगी। तो वहीं, अगर अंबेडकर हारते हैं, इतिहास खुद को एक बार फिर से दोहराएगा।
फोटोः फाइल
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