img

last begum of awadh: देश के सबसे ताकतवर राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी होने का सौभाग्य लखनऊ को यूं ही नहीं मिला है। इस शहर का इतिहास इतना खास था कि ये राजधानी बनने की दौड़ में सबसे आगे निकल गया। कभी अवध के नवाबों की राजधानी रहे लखनऊ की आखिरी रानी यानी अवध की बेगम एक तवायफ थीं। आईये जानते हैं कैसे वो एक वेश्या से राजा की पत्नी बन गई और आखिर में अंग्रेजों से लोहा लिया।

बेगम हजरत महल का जन्म 1820 में फैजाबाद के एक सैयद परिवार में हुआ था। उनकी माँ की मृत्यु प्रसव के दौरान हो गई। उसका नाम मुहम्मदी ख़ानम था। ये परिवार बेहद गरीब था। पिता मुहम्मद को लेकर लखनऊ आ गये, मगर 12 वर्ष की आयु में उनकी भी मृत्यु हो गयी। जब मुहम्मद के पालन-पोषण का भार आया तो मौसी ने उन्हें लालची खान अम्मान और इमाम को बड़ी धनराशि में बेच दिया। इस प्रकार मुहम्मदन लखनऊ की तवायफों की बस्ती में आ गये।

आंटी ने बचपन में कर दिया था सौदा

अपने माता-पिता की मृत्यु के बाद मुहम्मदी खानम के पालन-पोषण की जिम्मेदारी उनके चाचा पर आ गई। जो लखनऊ में कढ़ाई का काम करते थे। रूपा पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित अपनी नई किताब 'ए नवाब एंड ए बेगम' में सुदीप्त मित्रा लिखती हैं कि मुहम्मदी की चाची किसी तरह परिवार का भरण-पोषण करती थीं। पैसों की हमेशा कमी रहती थी. एक दिन उनके घर के सामने एक पालकी रुकी और उसमें से दो पर्दानशीन औरतें उतरीं। उसने मुहम्मद की चाची को पैसों की एक गड्डी दी। इससे पहले कि मुहम्मदी को कुछ पता चलता, उसे जबरदस्ती पालकी में बिठाया गया। पालकी लखनऊ के एक चौराहे पर रुकी, जो कोठा बस्ती थी।

मुहम्मदी खूबसूरत थीं, इसलिए उन्हें नवाबों के शाही हरम में तवायफ बनने के लिए संगीत और नृत्य का प्रशिक्षण दिया गया। 23 साल की उम्र में मुहम्मदी को नवाब वाजिद अली शाह के शाही हरम के नाम 'परिखाना' में भर्ती कराया गया। कुछ ही दिनों में वह नवाब वाजिद अली शाह की नजर में आ गईं। इसके बाद उन्हें 'महक परी' नाम मिला। महक परी बनने के बाद वह नवाब की खास बन गईं।

नवाब को वह इतनी पसंद आई कि उन्होंने उससे शादी कर ली

नवाब वाजिद अली शाह को महक परी इतनी पसंद थी कि वह उसके बिना एक पल भी नहीं रह पाते थे। नवाब ने उससे शादी कर ली। यह इस्लाम में एक प्रकार का अनुबंध विवाह है। मुता की शादी के बाद महक परी नवाब की छोटी पत्नी बनीं। नवाब ने पहले उन्हें 'इफ्तिखार-उन-निशा' की उपाधि दी और बाद में उनका नाम बदलकर बेगम हजरत महल रख दिया। वह इतनी ताकतवर शख्सियत बन गईं कि अवध के गलियारों में उनकी बातों को नवाब के आदेश की तरह माना जाता था।

1856 में अंग्रेजों ने नवाब वाजिद अली शाह को अवध की गद्दी से उतारकर गिरफ्तार कर लिया। बाद में उन्हें कोलकाता निर्वासित कर दिया गया। जाने से पहले नवाब ने बेगम हजरत महल समेत अपनी सभी 9 पत्नियों को तलाक दे दिया। इससे बेगम हजरत महल क्रोधित हो गईं और उन्होंने इसके लिए अंग्रेजों को दोषी ठहराना शुरू कर दिया। वह लखनऊ में ही रहीं।

1857 में तलवार उठा ली

बेगम हजरत महल अंग्रेजों के विरुद्ध मौके का इंतजार कर रही थीं। फिर 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ। हवा का रुख भांपकर बेगम हजरत महल ने कानपुर के क्रांतिकारी पेशवा नाना साहब द्वितीय और उनके सेनापति तात्या टोपे के साथ मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बजा दिया। 'गदर' में बेगम ने हाथ में तलवार लेकर क्रांतिकारियों के साथ लखनऊ को चारों तरफ से घेर लिया। चिनहट की लड़ाई में अंग्रेज़ हार गये और लखनऊ फिर से बेगम हज़रत महल के नियंत्रण में आ गया। उन्होंने अपने पुत्र बिरजिस कद्र को अवध का नवाब घोषित किया।

नेपाल की धरती पर आखिरी सांस

बेगम हजरत महल की सेना बाद में अंग्रेजों से हार गई। इसके बाद वह अपने बेटे के साथ बहराईच होते हुए नेपाल चली गईं, जहां राजा जंग बहादुर ने उन्हें आश्रय दिया। क्रांति कुचले जाने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें वापस बुलाने के लिए कई प्रलोभन दिए और ढेर सारा धन देने की पेशकश की, मगर उन्होंने इनकार कर दिया, 7 अप्रैल 1879 को काठमांडू में बेगम हजरत महल की मृत्यु हो गई। उन्हें काठमांडू में जामा मस्जिद के मैदान में दफनाया गया था। आजादी के 37 साल बाद क्रांति में उनके योगदान की भारत सरकार ने सराहना की और 10 मई 1984 को उनकी याद में एक डाक टिकट जारी किया गया।

--Advertisement--