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Up Kiran, Digital Desk: ईरान और इज़राइल के बीच लगातार बढ़ते तनाव के बीच, सत्ता परिवर्तन को लेकर पश्चिमी देशों की बयानबाजी ने स्थिति को और संवेदनशील बना दिया है। अमेरिकी प्रशासन और इज़राइली नेतृत्व द्वारा ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई को खुले तौर पर निशाना बनाए जाने के संकेतों ने एक बार फिर मध्य पूर्व की राजनीति को अतीत की दहलीज़ पर लाकर खड़ा कर दिया है।
हालिया घटनाक्रम में, वॉशिंगटन और तेल अवीव दोनों ने ईरान में शासन परिवर्तन को क्षेत्रीय स्थिरता का विकल्प बताया है। इससे ईरान के अंदर और बाहर कई सवाल खड़े हो रहे हैं—क्या ये प्रयास फिर से विदेशी हस्तक्षेप का दौर शुरू करेंगे? क्या अतीत की गलतियाँ दोहराई जाएंगी?
1953: जब लोकतंत्र को कुचला गया था
ईरान में विदेशी हस्तक्षेप का इतिहास कोई नया नहीं है। वर्ष 1953 में ब्रिटेन और अमेरिका ने मिलकर तत्कालीन प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादेग की सरकार को गिराने के लिए "ऑपरेशन अजाक्स" नामक गुप्त योजना बनाई थी। मोसादेग ने राष्ट्रीय हित में तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया था, जो पश्चिमी शक्तियों को नागवार गुजरा।
तख्तापलट सफल रहा और शाह मोहम्मद रजा पहलवी को दोबारा सत्ता में बैठाया गया। हालांकि, यह जीत लोकतंत्र की हार थी। शाह का शासन निरंकुश था, और उनकी नीतियों ने देश में असंतोष को जन्म दिया। यहीं से पश्चिमी शक्तियों के प्रति अविश्वास की भावना गहराने लगी।
1979 की क्रांति: स्वराज की पुनर्परिभाषा
इस असंतोष ने अंततः 1979 की इस्लामी क्रांति का रूप ले लिया, जिसमें धार्मिक नेता अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में ईरान एक इस्लामी गणराज्य बन गया। इस घटना ने न केवल देश की राजनैतिक संरचना को बदल डाला, बल्कि अमेरिका के खिलाफ गुस्से और आत्मनिर्भरता के भाव को भी स्थायी बना दिया।
वर्तमान घटनाएँ: इतिहास का प्रतिध्वनि
आज, जब अमेरिका और इज़राइल फिर से ईरान की सत्ता के ढांचे में बदलाव की मांग कर रहे हैं, ईरानी जनमानस इसे उसी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देख रहा है एक बार फिर विदेशी ताकतें उनके देश की संप्रभुता को चुनौती दे रही हैं।
ईरानी सरकार इन बयानों का इस्तेमाल आंतरिक एकता मजबूत करने के लिए कर रही है। राष्ट्रवादी विमर्श तेज़ हुआ है और पश्चिमी दखल को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा बताया जा रहा है।
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