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Up Kiran, Digital Desk: इस बार बिहार के मतदाता ने साफ संदेश दे दिया कि वो अब सिर्फ दो बड़े गठबंधनों में से किसी एक को ही पसंद कर रहा है। 243 सीटों वाली विधानसभा में पहली बार एक भी निर्दलीय विधायक नहीं पहुंचा। जी हाँ शून्य! ये अपने आप में इतिहास है।

निर्दलीयों का 70 साल पुराना सफर खत्म

1952 से लेकर 1985 तक बिहार में कभी 14 तो कभी 29 तक निर्दलीय जीतते रहे। 1967 में तो पूरे 33 स्वतंत्र उम्मीदवार विधानसभा पहुंच गए थे। लालू यादव के आने के बाद भी 1990 में 30 निर्दलीय जीते। लेकिन उसके बाद से हर चुनाव में इनकी संख्या घटती गई। 2020 में सिर्फ एक बचा था सुमित सिंह। इस बार तो वो भी जेडीयू के टिकट पर लड़कर हार गए। यानी पूरी तरह साफ।

तीसरे मोर्चे की हवा निकली

सबसे बड़ा बदलाव वोट प्रतिशत में दिखा। साल 2000 में छोटे दल और निर्दलीय मिलकर 36.8 फीसदी वोट ले जाते थे। फरवरी 2005 में तो ये आंकड़ा 49.4 फीसदी तक पहुंच गया था। लेकिन 2025 आते आते यही वोट घटकर सिर्फ 15.5 फीसदी रह गया। दस फीसदी वोट सीधे एनडीए की झोली में चला गया। नतीजा महागठबंधन का वोट शेयर 37.2 से बढ़कर 37.9 फीसदी हो गया मगर सीटें आधी से भी कम रह गईं।

वोटर ने कहा: अब बीच का रास्ता नहीं

मतदाता अब साफ-साफ दो खेमों में बंट गया है। बीच में जो ताकतें थीं एआईएमआईएम हो या बसपा या कोई लोकल बाहुबली सभी हाशिए पर पहुंच गए। कई सीटों पर बागी और निर्दलीय उम्मीदवारों ने जरूर वोट काटा। मिसाल के तौर पर परिहार सीट पर राजद की बागी रितु जायसवाल दूसरे नंबर पर रही और राजद तीसरे पर खिसक गई। मगर कुल मिलाकर ऐसे उम्मीदवार जीत नहीं पाए।

एनडीए सिर्फ 5 सीट से चूका पुराना रिकॉर्ड

एनडीए ने इस बार शानदार प्रदर्शन किया। 2010 में बीजेपी-जेडीयू मिलकर 206 सीट जीते थे। इस बार वो सिर्फ पांच सीट पीछे रह गया। मतदान प्रतिशत भी आजादी के बाद सबसे ज्यादा रहा। मतदाता ने साफ कहा कि वो अब स्थिर सरकार चाहता है और उसके लिए सिर्फ दो बड़े गठबंधन ही विकल्प हैं।