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Up Kiran, Digital Desk: भारत के दो बड़े महानगर, दिल्ली और चेन्नई, सिर्फ अपनी संस्कृति, भाषा या खान-पान में ही अलग नहीं हैं, बल्कि घरेलू सहायिकाओं (Domestic Help) की उपलब्धता, लागत और उनसे जुड़े अनुभवों में भी एक अनोखी तस्वीर पेश करते हैं। यह उत्तर और दक्षिण भारत के शहरों में काम करने के तरीके और सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता पर गहरी रोशनी डालता है। आइए जानते हैं क्या हैं दिल्ली और चेन्नई के इस मामले में चौंकाने वाले सबक।

घर के कामों में मदद आज शहरी जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा बन गई है। चाहे खाना बनाना हो, सफाई करनी हो या बच्चों की देखभाल, घरेलू सहायिकाएं शहरों में रहने वाले परिवारों के लिए एक बड़ी राहत होती हैं। लेकिन दिल्ली और चेन्नई में इन सेवाओं को लेकर अनुभव काफी भिन्न हैं।

उपलब्धता और पृष्ठभूमि:

दिल्ली (उत्तर भारत): दिल्ली में घरेलू सहायिकाओं की उपलब्धता काफी अधिक है। यहां बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और ओडिशा जैसे राज्यों से पलायन करके आने वाले लोग बड़ी संख्या में घरेलू काम करते हैं। दिल्ली में "लाइव-इन" (घर में रहने वाली) घरेलू सहायिकाएं भी अपेक्षाकृत आसानी से मिल जाती हैं, खासकर उन परिवारों के लिए जिन्हें चौबीसों घंटे मदद की आवश्यकता होती है। यह प्रवासन (migration) का एक सीधा परिणाम है।

चेन्नई (दक्षिण भारत): चेन्नई में स्थिति काफी अलग है। यहां घरेलू सहायिकाएं दिल्ली जितनी आसानी से नहीं मिलतीं। यहां काम करने वाले लोग अक्सर स्थानीय होते हैं और "लाइव-आउट" (बाहर से आकर काम करने वाली) सेवाएं अधिक प्रचलित हैं। वे आम तौर पर एक से अधिक घरों में काम करती हैं और उनके समय को लेकर अधिक पाबंदियां होती हैं। यहां उम्रदराज महिलाएं इस काम में अधिक शामिल होती हैं।

लागत और काम का दायरा:

दिल्ली: दिल्ली में घरेलू सहायिकाओं की लागत अक्सर चेन्नई की तुलना में अधिक होती है, खासकर लाइव-इन सहायिकाओं के लिए। काम का दायरा भी व्यापक हो सकता है, जिसमें कई बार खाना पकाने से लेकर बच्चों की देखभाल और साफ-सफाई सब शामिल होता है।

चेन्नई: चेन्नई में घरेलू सहायिकाएं दिल्ली की तुलना में आमतौर पर कम पैसे लेती हैं। उनका काम अक्सर अधिक विशिष्ट होता है, जैसे सिर्फ खाना बनाना या सिर्फ साफ-सफाई करना। एक ही व्यक्ति सारे काम करे, यह कम देखने को मिलता है।

संबंध और विश्वास: दिल्ली: दिल्ली में रोजगारदाताओं (Employers) और घरेलू सहायिकाओं के बीच संबंध कई बार अधिक व्यावसायिक (transactional) होते हैं। सुरक्षा और सत्यापन (verification) एक बड़ी चिंता का विषय है, जिसके कारण कई रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (RWA) और पुलिस भी पृष्ठभूमि की जांच पर जोर देते हैं। विश्वास का स्तर बनाना अक्सर चुनौतीपूर्ण होता है।

चेन्नई: चेन्नई में संबंध अक्सर अधिक व्यक्तिगत और दीर्घकालिक होते हैं। नियोक्ता और कर्मचारी के बीच भरोसे का एक मजबूत बंधन विकसित हो सकता है, क्योंकि अक्सर वे एक ही समुदाय से होते हैं या एक-दूसरे को लंबे समय से जानते होते हैं।

व्यवस्थित दृष्टिकोण की आवश्यकता (दिल्ली): दिल्ली को घरेलू कामगारों के लिए एक अधिक व्यवस्थित और सुरक्षित माहौल बनाने की जरूरत है। इसमें पंजीकरण, पृष्ठभूमि की जांच और मानकीकृत अनुबंधों को बढ़ावा देना शामिल है ताकि दोनों पक्षों के अधिकार सुरक्षित रहें।

श्रम आपूर्ति प्रबंधन (चेन्नई): चेन्नई में घरेलू कामगारों की कमी को दूर करने के लिए अधिक संगठित सेवाएं और प्रशिक्षण कार्यक्रम आवश्यक हो सकते हैं। इससे नए लोगों को इस क्षेत्र में आने का प्रोत्साहन मिलेगा।

सम्मान और गरिमा: दोनों शहरों से यह सबक मिलता है कि घरेलू सहायिकाओं को सम्मान और गरिमा के साथ देखा जाना चाहिए। वे भारतीय अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और उनके अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए।

प्रवासी श्रम का महत्व: दिल्ली का मॉडल दिखाता है कि कैसे प्रवासी श्रम शहरी अर्थव्यवस्थाओं को सहारा देता है, लेकिन साथ ही उनकी सुरक्षा और कल्याण के लिए विशेष नीतियों की आवश्यकता पर भी जोर देता है।

 दिल्ली और चेन्नई दोनों ही शहरों में घरेलू सहायिकाओं की अपनी अनूठी चुनौतियां और अवसर हैं। इन भिन्नताओं को समझना शहरी नियोजन और सामाजिक नीतियों के लिए महत्वपूर्ण है ताकि सभी के लिए एक बेहतर और सुरक्षित कार्य वातावरण बनाया जा सके।

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