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Up Kiran, Digital Desk: जब देशभर में दिवाली की चमक फीकी पड़ने लगती है, उस वक़्त उत्तराखंड और हिमाचल के कुछ गांवों में उत्सव का असली रंग चढ़ता है। यहां दिवाली महीनेभर बाद मनाई जाती है, जिसे 'बूढ़ी दिवाली' या 'बग्वाल' कहा जाता है।

बूढ़ी दिवाली सिर्फ एक देरी से मनाया गया पर्व नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विरासत, परंपरा और लोकविश्वासों का जीवंत उदाहरण है। यह त्योहार उत्तराखंड के जौनसार बावर और हिमाचल के कुल्लू जैसे क्षेत्रों में खासतौर पर धूमधाम से मनाया जाता है।

बूढ़ी दिवाली क्यों मनाते हैं देर से?

स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, रामायण काल में जब भगवान राम रावण पर विजय प्राप्त कर अयोध्या लौटे, तो उनकी विजय का समाचार हिमालयी क्षेत्रों तक देर से पहुंचा। इसलिए वहां के लोगों ने दिवाली बाद में मनाई। यही देरी आज एक पर्व बन गई है, जिसे बूढ़ी दिवाली के नाम से जाना जाता है।

वहीं, एक और व्यावहारिक वजह यह भी है कि इन क्षेत्रों में लोग दिवाली तब मनाते हैं जब खेतों की फसल कट चुकी होती है और त्योहार मनाने का समय और संसाधन दोनों उपलब्ध होते हैं।

पर्व का तरीका, रीति-रिवाज और खासियत

बूढ़ी दिवाली का तरीका पारंपरिक दिवाली से बिल्कुल अलग है। यहां पटाखे नहीं फोड़े जाते। पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए मशालों का प्रयोग किया जाता है। भीमल की लकड़ी से बनी मशालें जलती हैं और गांवों की गलियों को रोशन करती हैं।

लोग पारंपरिक पहनावे में सजते हैं।

पंचायत भवन या खलिहान में एकत्र होते हैं।

ढोल-दमाऊ की थाप पर रासो, तांदी, झैंता और हारुल जैसे लोकनृत्य होते हैं।

रस्साकशी जैसे ग्रामीण खेलों का आयोजन भी होता है।

इस पर्व का मुख्य उद्देश्य होता है सामूहिक आनंद, एकता और अपनी जड़ों से जुड़ाव।

नाम में क्या है खास?

'बूढ़ी दिवाली' नाम कुछ लोगों को अजीब लग सकता है, लेकिन इसका सीधा सा अर्थ है — पुरानी या पिछली दिवाली। इसे 'नई' दिवाली के बाद मनाया जाता है, इसलिए इसका नाम भी वैसा ही पड़ा।