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Up Kiran, Digital Desk: हिमाचल प्रदेश की सुरम्य घाटियों में बसा कोटगढ़ एक समय भारत की "सेब क्रांति" का जनक माना जाता था। यहीं 1916 में अमेरिकी मिशनरी सैमुअल इवांस स्टोक्स ने लुइसियाना से सेब के पौधे मंगवाकर उन्हें कोटगढ़ की ठंडी जलवायु में लगाया था। यह प्रयोग इतना सफल रहा कि गेहूं और मक्का की खेती पीछे छूट गई, और पूरी घाटी बागवानी के रंग में रंग गई। कोटगढ़-थनेधर जैसे इलाकों को ग्रामीण समृद्धि की मिसाल माना जाने लगा।

मगर आज, एक सदी से भी अधिक पुरानी यह कहानी एक नए अध्याय की ओर बढ़ रही है। जहाँ अब केवल सेब नहीं, बल्कि चेरी, प्लम, आड़ू, बादाम, ब्लूबेरी और कीवी जैसे फल भी इस पहाड़ी प्रदेश की पहचान बनने लगे हैं।

बदलती जलवायु, बदलती खेती

युवा किसान ने कहा कि अब सर्दियों में बर्फ नहीं गिरती मेरी फसल भी गिरती है। मेरी सेब की फसल आधी रह गई है और पिछले साल की बारिश ने वो भी बर्बाद कर दी। युवा किसान की आवाज़ अकेली नहीं है ये पूरे हिमाचल में गूंज रही एक नई हकीकत है।

शिमला से लगभग 80 किलोमीटर दूर स्थित कोटगढ़, यहां पहले बर्फबारी से सेब को जरूरी चिलिंग अवधि (1000–1600 घंटे) मिलती थी, अब जलवायु परिवर्तन के चलते गर्म होता जा रहा है। वाई.एस. परमार बागवानी एवं वानिकी विश्वविद्यालय के अनुसार, बीते दो दशकों में तापमान में 1.8 से 4.1 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी हुई है और बर्फबारी में 36.8 मिमी की वार्षिक कमी आई है।

लागत बढ़ी, मुनाफा घटा

खेती अब पहले जितनी लाभदायक नहीं रही। खाद की कीमतें 2,000 रुपये प्रति बोरी तक पहुंच गई हैं और कीटनाशक दोगुने दामों पर बिक रहे हैं। दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय बाजार से आयात किए जा रहे सस्ते सेब भी स्थानीय किसानों की मुश्किलें बढ़ा रहे हैं।

कृषि अर्थशास्त्री नीरज सिंह कहते हैं, “प्लम और सेब के दाम एक जैसे हैं, मगर प्लम की लागत बेहद कम है।” यही कारण है कि अब किसान कम लागत और बेहतर मुनाफे वाले विकल्पों की ओर रुख कर रहे हैं।

विविधता की ओर: चेरी, प्लम और ब्लूबेरी का नया उदय

कोटगढ़ के दीपक सिंघा, जो प्लम ग्रोवर्स फोरम के अध्यक्ष हैं, बताते हैं कि यहाँ अब "रेड ब्यूटी", "ब्लैक एंबर", और "फ्रायर" जैसी प्लम की किस्में लगाई जा रही हैं। साथ ही ब्लूबेरी, एवोकाडो और कीवी जैसे फलों पर भी प्रयोग हो रहे हैं।

अजय ठाकुर जैसे प्रगतिशील किसान पिछले आठ वर्षों से चेरी, प्लम और बादाम उगा रहे हैं और मानते हैं कि इन फलों से सेब की तुलना में ज़्यादा फायदा हो रहा है। “ब्लूबेरी 1,500 रुपये प्रति किलो तक बिक जाती है,” वे बताते हैं।

बदलाव की राह: आसान नहीं मगर जरूरी

बागवानी वैज्ञानिक उषा शर्मा मानती हैं कि विविध फसलें न केवल मिट्टी की सेहत बेहतर करती हैं, बल्कि जलवायु जोखिम को भी कम करती हैं। मगर यह बदलाव हर किसान के लिए सरल नहीं है। नई फसलों के लिए सिंचाई, पौध, प्रशिक्षण और कोल्ड स्टोरेज जैसी बुनियादी ज़रूरतें पूरी करना छोटे किसानों के लिए चुनौती है।

हालांकि सरकार भी पीछे नहीं है। बागवानी विभाग क्रिम्स्क 86 रूटस्टॉक जैसी जलवायु-अनुकूल किस्में ला रहा है और हाई डेंसिटी सेब योजना के तहत ‘गाला’ और ‘फूजी’ जैसी कम चिलिंग किस्मों को बढ़ावा दिया जा रहा है।

क्या भविष्य में सेब की जगह कोई और फल लेगा

यह सवाल अब हर किसान के मन में है। पूर्व एचपीएमसी उपाध्यक्ष प्रकाश ठाकुर मानते हैं कि नीति तो बनी है, मगर अभी जमीन पर बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

राज्य के बागवानी निदेशक विनय सिंह भी मानते हैं कि, “सेब आज भी महत्वपूर्ण है, मगर महानगरों और पश्चिम एशियाई देशों में चेरी, कीवी और परिसीमन जैसी फसलों की मांग तेजी से बढ़ रही है।”

 

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