
Up Kiran, Digital Desk: भारत के लोकतंत्र के केंद्र में एक महत्वपूर्ण सवाल गूंज रहा है: क्या राज्यपाल, जो कि एक निर्वाचित सरकार के प्रमुख के रूप में कार्य करते हैं, को राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोकने का अधिकार होना चाहिए? इस गंभीर संवैधानिक मुद्दे पर देश की सर्वोच्च अदालत, सुप्रीम कोर्ट, ने केंद्र सरकार से तीखे सवाल पूछे हैं, जिससे यह स्पष्ट है कि राज्यपाल की शक्तियों के दुरुपयोग की आशंकाओं पर गंभीर चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं। यह सुनवाई एक राष्ट्रपति संदर्भ मामले का हिस्सा है, जो राज्यपालों और राष्ट्रपतियों द्वारा विधेयकों पर निर्णय लेने की समय-सीमा पर सर्वोच्च न्यायालय के पिछले फैसले को लेकर है।
"राज्यपाल की मनमर्ज़ी के आगे झुकेगी चुनी हुई सरकारें?": CJI का तीखा सवाल
मुख्य न्यायाधीश (CJI) बी. आर. गवाई की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने यह महत्वपूर्ण टिप्पणी की। पीठ ने महाधिवक्ता (Solicitor General) तुषार मेहता से, जो केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, पूछा कि क्या राज्यपाल को विधेयक पर सहमति रोकने की शक्ति देकर, हम चुनी हुई सरकार को 'राज्यपाल की मनमर्ज़ी' पर नहीं छोड़ रहे हैं। CJI गवाई ने आगे कहा, "क्या हम राज्यपाल को अपीलों पर बैठे रहने की पूरी शक्ति नहीं दे रहे हैं? बहुमत से चुनी हुई सरकार राज्यपाल की मनमर्ज़ी की गुलाम हो जाएगी। यह सवाल सीधे तौर पर राज्य की स्वायत्तता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अखंडता से जुड़ा है।
संविधान का अनुच्छेद 200: राज्यपाल के अधिकार और सीमाएं
यह पूरी बहस संविधान के अनुच्छेद 200 के इर्द-गिर्द घूम रही है, जो बताता है कि जब राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कोई विधेयक राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो उनके पास क्या विकल्प होते हैं:
सहमति देना (Grant assent): विधेयक कानून बन जाता है।
सहमति रोकना (Withhold assent): विधेयक पर सहमति नहीं दी जाती।
पुनर्विचार के लिए वापस भेजना (Return for reconsideration): विधेयक को राज्य विधानमंडल के पास वापस भेजा जाता है, सुझावों के साथ।
राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए आरक्षित करना: विधेयक को राष्ट्रपति की राय के लिए आरक्षित रखा जाता है।
महाधिवक्ता तुषार मेहता ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 200 के तहत, राज्यपाल सहमति रोक सकते हैं, जिससे विधेयक 'समाप्त' हो जाता है, और उसे विधानमंडल को वापस भेजने का कोई विकल्प नहीं रहता। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि यह शक्ति राज्यपाल के विवेकाधिकार का हिस्सा है और इससे उन्हें 'पोस्टमैन' की भूमिका तक सीमित नहीं किया जा सकता।
न्यायपालिका की चिंता: अनिश्चितकालीन देरी और शक्ति का संतुलन
सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क पर चिंता व्यक्त की कि यदि राज्यपाल किसी विधेयक को बिना पुनर्विचार के लिए वापस भेजे ही स्थायी रूप से सहमति रोक देते हैं, तो यह राज्यपाल के अधिकारों के साथ-साथ विधायी प्रक्रिया के लिए भी 'प्रतिकूल' होगा। पीठ ने इस बात पर भी सवाल उठाया कि क्या राज्यपाल को अनिश्चित काल तक विधेयकों को रोके रखने की शक्ति दी जानी चाहिए, क्योंकि इससे चुनी हुई सरकारें पूरी तरह से एक गैर-निर्वाचित अधिकारी पर निर्भर हो जाएंगी।
कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि राज्यपाल को विधेयक को रोकने के कारणों को स्पष्ट रूप से बताना चाहिए, ताकि न्यायिक समीक्षा संभव हो सके। यह चिंता विशेष रूप से तब महत्वपूर्ण हो जाती है जब ऐसे मामले सामने आते हैं जहां राज्यपाल लंबे समय तक विधेयकों पर कोई निर्णय नहीं लेते, जैसा कि हाल के कुछ राज्यों में देखा गया है।
संविधान निर्माताओं की मंशा और वर्तमान वास्तविकता
केंद्र सरकार ने संवैधानिक बहसों का हवाला देते हुए कहा कि राज्यपाल की भूमिका महत्वपूर्ण है और यह शक्ति उनके विवेकाधिकार में आती है।हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि क्या राज्यपालों ने वास्तव में संविधान निर्माताओं द्वारा परिकल्पित 'राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच सद्भाव' की दृष्टि को पूरा किया है।यह प्रश्न वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच बढ़ते तनावों को भी रेखांकित करता है।
यह पूरा मामला भारत में संघवाद (Federalism) के सिद्धांत, राज्य स्वायत्तता (State Autonomy) और लोकतांत्रिक जवाबदेही (Democratic Accountability) के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप यह सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है कि विधायी प्रक्रिया सुचारू रूप से चले और चुनी हुई सरकारें अपनी जनता के प्रति जवाबदेह रहें, न कि राज्यपालों की मर्जी की मोहताज।
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