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Up kiran,Digital Desk : अरावली सिर्फ पत्थरों का ढेर नहीं है, यह दिल्ली-एनसीआर से लेकर गुजरात तक फैली एक प्राकृतिक दीवार है जो थार रेगिस्तान की धूल को हम तक आने से रोकती है। लेकिन, 20 नवंबर को एक ऐसा फैसला आया है जिसने पर्यावरण प्रेमियों की नींद उड़ा दी है। सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रालय की एक कमेटी की उस सिफारिश को मान लिया है, जिसमें तय किया गया है कि आखिर 'अरावली पहाड़ी' किसे कहा जाएगा।

सुनने में यह एक सामान्य सरकारी प्रक्रिया लगती है, लेकिन इसके पीछे की कहानी और आंकड़े बेहद डरावने हैं।

100 मीटर का नियम और 'गायब' होते पहाड़

नई परिभाषा के मुताबिक, सिर्फ वही हिस्सा अरावली माना जाएगा जो अपने आस-पास की जमीन से 100 मीटर या उससे ज्यादा ऊँचा होगा। सुनने में अच्छा है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है।

फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) के अपने आंकड़ों के मुताबिक, 15 जिलों में करीब 12,081 पहाड़ियाँ हैं जो 20 मीटर या उससे ऊपर की हैं। लेकिन इस नए '100 मीटर' वाले नियम को लगाते ही इनमें से 90% से ज्यादा पहाड़ियाँ लिस्ट से बाहर हो जाएंगी।
सीधा मतलब है कि 12,081 में से सिर्फ 1,048 पहाड़ियाँ ही कागजों पर 'अरावली' मानी जाएंगी। बाकी बची छोटी पहाड़ियों (जो 100 मीटर से कम हैं) पर अब खनन (Mining) और निर्माण कार्य आसानी से हो सकेगा।

दिल्ली-एनसीआर पर क्या बीतेगी?

  • रेत का तूफान: अरावली की छोटी पहाड़ियां (20 से 100 मीटर वाली) तेज हवाओं और रेत के बवंडर को रोकती हैं। अगर ये हटीं, तो राजस्थान के थार मरुस्थल की धूल और रेत सीधे दिल्ली, हरियाणा और यूपी के मैदानी इलाकों में घुसेगी।
  • जहरीली हवा: यह पहाड़ियाँ PM 2.5 जैसे जहरीले कणों को भी रोकती हैं। इनके हटने का मतलब है हवा और जहरीली होगी।
  • सूखा: यह क्षेत्र भूजल (Groundwater) रिचार्ज का काम करता है। खनन से पानी का संकट गहराएगा।

कमाल का तर्क: जो पहाड़ थे, अब वो पहाड़ नहीं

सरकार ने जो रिपोर्ट पेश की, उसमें कुछ बातें बेहद अजीब हैं। उदाहरण के लिए, चित्तौड़गढ़ जहाँ पहाड़ी पर इतना विशाल और ऐतिहासिक किला बना है (यूनेस्को हेरिटेज), उसे और सवाई माधोपुर (जहाँ रणथंभौर है) को इस लिस्ट में उस तरह शामिल नहीं किया गया जैसे होना चाहिए था।

मंत्रालय ने 'ऊंचाई' को लेकर भी गजब का खेल खेला है। पहाड़ की ऊंचाई अक्सर समुद्र तल से मापी जाती है, लेकिन यहाँ शर्त रखी गई कि "आस-पास की जमीन से ऊंचाई 100 मीटर" होनी चाहिए।

  • इसे ऐसे समझिए: अगर कोई पहाड़ी समुद्र तल से 190 मीटर ऊंची है, लेकिन उसके पास की जमीन 100 मीटर ऊंची है, तो उस पहाड़ी की अपनी ऊंचाई सिर्फ 90 मीटर मानी जाएगी। यानी, वह नई परिभाषा में अरावली नहीं है और उसे तोड़ा जा सकता है।

3 डिग्री से 100 मीटर तक का सफर

2010 से अरावली तय करने के लिए '3-डिग्री ढलान' (Slope) का नियम चलता था। फिर 2024 में एक टेक्निकल कमेटी ने कहा कि 30 मीटर ऊंचाई और 4.57 डिग्री ढलान को मानक माना जाए। इससे भी अरावली का लगभग 40% हिस्सा बच सकता था।
लेकिन मंत्रालय ने कोर्ट में सिर्फ 100 मीटर ऊंचाई वाले फार्मूले को आगे बढ़ाया। विशेषज्ञों का कहना है कि छोटी पहाड़ियाँ भी इकोसिस्टम के लिए उतनी ही जरूरी हैं जितनी बड़ी।

आगे क्या?

पर्यावरण वकील रित्विक दत्ता का कहना है कि सरकार को सुरक्षा बढ़ाने वाला रास्ता चुनना चाहिए था, लेकिन उन्होंने सुरक्षा घटा दी है। अब जब सुप्रीम कोर्ट ने इस परिभाषा को स्वीकार कर लिया है और अवैध खनन रोकने के साथ 'टिकाऊ खनन' (Sustainable Mining) का प्लान बनाने को कहा है, तो डर यही है कि 'टिकाऊ' के नाम पर अरावली का वो हिस्सा खोद दिया जाएगा जो अब परिभाषा से बाहर है।