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Up Kiran, Digital Desk: दांतों का सफेद होना आज के जमाने में सुंदरता का प्रतीक है, लेकिन एक समय ऐसा था जब कई देशों में दांतों को काला करना खूबसूरती और सामाजिक दर्जे की निशानी माना जाता था। खासतौर पर जापान में यह प्रथा बहुत पुरानी और दिलचस्प थी। लेकिन यह केवल जापान तक सीमित नहीं थी। भारत, दक्षिण-पूर्व एशिया और लैटिन अमेरिका के कुछ हिस्सों में भी दांतों को काला करने की एक सांस्कृतिक परंपरा प्रचलित थी। ये परंपराएं न सिर्फ सौंदर्य के लिए, बल्कि सामाजिक स्थिति, परिपक्वता और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण मानी जाती थीं।

दांतों के कालेपन के पीछे का विज्ञान

जापान में इस प्रथा को ‘ओहागुरो’ के नाम से जाना जाता था। इसके लिए लोहे की जंग लगने वाली बुरादे को सिरके में घोलकर एक मिश्रण बनाया जाता था। इसमें लौंग, दालचीनी और चाय की पत्तियां मिलाकर उसे सुगंधित बनाया जाता था। इस मिश्रण को बांस के ब्रश या लकड़ी की छड़ियों से दांतों पर लगाया जाता था। भारत में भी इसी तरह ‘मिस्सी’ नामक एक प्रक्रिया थी, जिसमें आयरन सल्फेट और हर्बल सामग्री का इस्तेमाल होता था। इस पारंपरिक तरीके से दांत न केवल काले होते थे, बल्कि बैक्टीरिया और संक्रमण से भी बचाव होता था। आधुनिक विज्ञान ने पुष्टि की है कि इस प्रक्रिया से दांतों की सुरक्षा होती थी और वे लंबे समय तक स्वस्थ बने रहते थे। इसे हम आज के आधुनिक डेंटल सीलेंट का एक पुराना रूप कह सकते हैं।

समाजों में काले दांतों की परंपरा की भूमिका

समाज में इस प्रथा का महत्व अलग-अलग था। जापान में समुराई वर्ग और अभिजात्य महिलाओं के बीच यह फैशन था। गीशाओं के लिए यह एक पहचान थी। वहीं भारत के ग्रामीण इलाकों में ‘मिस्सी’ का प्रयोग दांतों को मजबूत और कीड़ों से बचाने के लिए होता था। वियतनाम और लाओस की महिलाओं के लिए काले दांत विवाह योग्य होने का प्रतीक थे। थाईलैंड, फिलीपींस और इंडोनेशिया की कुछ जनजातियों में भी यह परंपरा मौजूद थी। यहाँ काले दांत यौवन, वैवाहिक स्थिति और सम्मान का द्योतक थे।

इस प्रथा के खत्म होने की कहानी

19वीं सदी के बाद पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव ने इस परंपरा को खत्म कर दिया। जापान में 1870 में ओहागुरो पर प्रतिबंध लगा दिया गया। सम्राट ने खुद सार्वजनिक रूप से सफेद दांत दिखाए जिससे यह नया फैशन फैला। धीरे-धीरे अभिजात वर्ग और आम जनता ने इसे छोड़ दिया। भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के शहरी इलाकों में भी यह रिवाज लगभग खत्म हो चुका है। आज यह केवल नाटकों, पारंपरिक गीशा प्रदर्शनों और कुछ दूर-दराज़ के इलाकों में ही देखा जाता है।