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Up kiran,Digital Desk : कभी-कभी हमारी न्याय व्यवस्था में ऐसी कहानियां सामने आती हैं, जो किसी फिल्म की स्क्रिप्ट से कम नहीं लगतीं। ऐसी ही एक कहानी हरदोई की एक अदालत में सामने आई, जहाँ पुलिस ने एक "चमत्कारिक" जांच कर डाली - सिर्फ 45 मिनट में हरदोई से पीलीभीत जाना, सबूत इकट्ठा करना, गवाहों से बात करना और वापस भी आ जाना!

जब यह मामला जज के सामने आया, तो उन्होंने इस "फर्जीवाड़े" को पकड़ लिया और दहेज उत्पीड़न का पूरा केस शुरू होने से पहले ही खत्म कर दिया।

क्या था यह पूरा मामला?

कहानी शुरू होती है 11 सितंबर 2020 को, जब हरदोई के रहने वाले महेश गुप्ता ने अपनी बेटी निशा के ससुराल वालों के खिलाफ दहेज के लिए प्रताड़ित करने का केस दर्ज कराया था। आरोप था कि पीलीभीत में रहने वाले निशा के पति लक्ष्य अग्रवाल, ससुर विपिन अग्रवाल और सास पुष्पा अग्रवाल 5 लाख रुपये और सोने की चेन की मांग कर रहे थे और मांग पूरी न होने पर निशा को घर से निकाल दिया था। मामला महिला थाने में गया और तत्कालीन थानाध्यक्ष सुधा सिंह को इसकी जांच सौंपी गई।

7 महीने चली 'कागजी' जांच

पुलिस ने सात महीने तक जांच की और फिर अदालत में चार्जशीट दाखिल कर दी। आरोपी पक्ष ने जमानत ले ली और केस चलता रहा। लगभग 30 पेशियों और पांच साल के इंतजार के बाद, जब 13 अक्टूबर 2025 को आरोपियों पर आरोप तय होने थे, तभी पूरा खेल ही पलट गया।

वकील ने पकड़ी 45 मिनट वाली 'चोरी'

आरोपियों के वकील ने जज के सामने एक अर्जी दी और कहा कि यह पूरी जांच झूठी है और पुलिस ने थाने में बैठकर ही सारी कहानी लिख दी है। जब जज ने केस की डायरी देखी, तो उनकी आंखें खुली की खुली रह गईं। केस डायरी में लिखा था:

  • जांच शुरू होने का समय: रात 10:45 बजे।
  • जांच खत्म होने का समय: रात 11:30 बजे।

यानी, सिर्फ 45 मिनट में जांच अधिकारी ने:

  1. हरदोई से पीलीभीत (जोकि घंटों का सफर है) की यात्रा की।
  2. घटनास्थल का नक्शा बनाया।
  3. आरोपियों के पड़ोसियों से पूछताछ की।
  4. दबिश भी दी।
  5. और वापस हरदोई भी आ गईं!

जज ने लगाई फटकार, दिए कठोर निर्देश

सिविल जज लवलेश कुमार ने इस पर यकीन करने से साफ इनकार कर दिया। उन्होंने अपने फैसले में बेहद सख्त शब्दों का इस्तेमाल किया: "यह समय सारिणी झूठी, अविश्वसनीय और शक पैदा करने वाली है। इससे पूरी जांच की प्रमाणिकता खत्म हो जाती है।"

जांच में और भी थे बड़े 'ब्लंडर'

  • पीड़िता का नाम ही गलत: जांच में पीड़िता निशा गुप्ता का नाम 'अंजू पाल' लिख दिया गया था।
  • कॉपी-पेस्ट गवाही: सभी गवाहों के बयान शब्दशः एक जैसे थे। यहाँ तक कि एक टाइपिंग की गलती (सोने की पांच तोले की जगह पांच तोने लिखना) भी हर किसी के बयान में कॉपी-पेस्ट कर दी गई थी।

इन सबूतों के आधार पर जज ने इस जांच को "फर्जी" मानते हुए तीनों आरोपियों को केस शुरू होने से पहले ही बरी कर दिया और पुलिस की कार्यशैली पर एक बड़ा सवालिया निशान खड़ा कर दिया।