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Up Kiran, Digital Desk: दालें भारतीय रसोई की आत्मा हैं। चाहे पूरब हो या पश्चिम, उत्तर हो या दक्षिण—दाल किसी न किसी रूप में हर थाली में ज़रूर मिलती है। खासतौर पर शाकाहारी भारतीय भोजन लाल चावल और दाल के बिना अधूरा माना जाता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि एक दाल ऐसी भी है, जिसे कुछ हिंदू परंपराएं ‘मांसाहारी’ मानती हैं?
जी हां, बात हो रही है लाल मसूर की दाल की—जो आमतौर पर घरों में आसानी से पकती है, पौष्टिक होती है, लेकिन फिर भी सदियों से इसे लेकर धार्मिक और पौराणिक मान्यताएं चली आ रही हैं। बंगाल और ब्राह्मण समुदायों में तो इसे कई बार तामसिक भोजन की श्रेणी में रखकर त्याग भी दिया जाता है।
तो चलिए, जानते हैं इस आम लेकिन विवादित दाल की असामान्य कहानी—एक ऐसी कहानी जिसमें पौराणिक रक्त बहता है, धर्म की सीमाएं हैं, और इतिहास की परतें भी।
लाल मसूर – स्वाद में खास, लेकिन धर्म में वर्जित?
लाल मसूर की दाल में प्रोटीन भरपूर मात्रा में होता है। शाकाहारी लोगों के लिए यह एक अच्छा प्रोटीन स्रोत मानी जाती है। लेकिन बंगाली हिंदू, विशेष रूप से गौड़ीय वैष्णव पंथ के अनुयायी इसे अपने भोजन में शामिल नहीं करते। क्यों? इसका जवाब सिर्फ पोषण में नहीं, बल्कि मान्यता, इतिहास और पौराणिकता में छिपा है।
प्रोटीन और हार्मोन का कनेक्शन
टाइम्स नाऊ की एक रिपोर्ट के अनुसार, पहले के समय में विधवाओं को सादा, सात्विक भोजन देने का नियम था। लेकिन मसूर दाल, लहसुन और प्याज जैसे पदार्थों को उनसे दूर रखा जाता था क्योंकि माना जाता था कि इन चीजों में उत्तेजक तत्व होते हैं, जो हार्मोनल बदलावों को बढ़ाते हैं।
इनका सेवन ‘तामसिक’ श्रेणी में आता है—यानी ऐसा भोजन जो शरीर में आलस्य, काम भावना या नकारात्मक विचार पैदा करे। यही कारण है कि ब्राह्मण, साधु और संन्यासी इस दाल से दूरी बनाकर रखते हैं।
महाभारत काल की कहानी और कामधेनु की पीड़ा
एक लोकप्रिय कथा महाभारत युग से जुड़ी है। कहा जाता है कि हैहय वंश के राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन ने ऋषि जमदग्नि की कामधेनु नामक दिव्य गाय को चुराने का प्रयास किया। जब वह उसे घसीट रहे थे, तो कामधेनु के शरीर से रक्त बहा, और जिस भूमि पर रक्त की बूंदें गिरीं, वहां मसूर दाल के पौधे उग आए।
यही कारण है कि कुछ लोग लाल मसूर को गाय के कष्ट और बलिदान से जोड़कर देखते हैं और इसे ‘मांसाहार’ जैसा मानते हैं। खासकर ब्राह्मण समाज में इसे त्याज्य भोजन की तरह देखा गया।
गौड़ीय वैष्णववाद का प्रभाव और रंग का डर
बंगाल में गौड़ीय वैष्णववाद का बड़ा प्रभाव है। इस संप्रदाय में सिर्फ सात्विक भोजन को अनुमति है। लाल मसूर की दाल को न केवल स्वाद और असर के कारण, बल्कि उसके गाढ़े रंग के कारण भी मांस जैसा माना जाता है। वैष्णव समुदाय के लिए काले या गहरे रंग के भोजन को अशुभ माना गया है। यही वजह है कि इस दाल को उनके अनुष्ठानों और रसोई से दूर रखा गया।
राहु का रक्त और लाल मसूर का जन्म
एक और कहानी में लाल मसूर की उत्पत्ति को दैत्य स्वरभानु से जोड़ा गया है।
जब भगवान विष्णु ने छल से अमृत पीने की कोशिश करते हुए राहु का सिर काटा, तो उसकी गिरी हुई रक्त की बूंदों से लाल मसूर का जन्म हुआ—ऐसा कहा जाता है। इस दृष्टिकोण से यह दाल राक्षसी उत्पत्ति मानी गई और साधु-संतों ने इसे त्याग दिया।
मुगलों की थाली में लाल दाल
इतिहास के दस्तावेजों में बताया गया है कि लाल मसूर की दाल मिस्र (Egypt) में 2000 ईसा पूर्व उगाई जाती थी। इसका नाम भी ‘मिसरा’ शब्द से आया है। जब मुगल भारत आए, तो उन्होंने इस दाल को अपने भोजन में शामिल किया।
माना जाता है कि मुगलों के ‘मांसाहारी रसोई संस्कृति’ का यह एक हिस्सा था और यही कारण है कि हिंदू धर्म के कुछ वर्गों ने इसे ‘गैर-सात्विक’ घोषित कर दिया।
तो क्या अब भी मांसाहारी है लाल मसूर?
आधुनिक पोषण विज्ञान कहता है कि लाल मसूर दाल पूरी तरह शाकाहारी और स्वास्थ्यवर्धक है। इसमें फाइबर, आयरन, और प्रोटीन भरपूर मात्रा में होता है। लेकिन धार्मिक मान्यताएं और पौराणिक कहानियां अब भी इसे लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण बनाए रखती हैं।
तो अगली बार जब आप थाली में लाल मसूर की दाल देखें, तो सिर्फ स्वाद नहीं, उसके पीछे की हज़ारों साल पुरानी कहानियों और मान्यताओं को भी याद करें। हो सकता है, आपकी एक कटोरी दाल में इतिहास और आस्था का गहरा स्वाद भी हो!
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