प्रयोगशीलता के दौर में नौटंकी में बहुत कुछ जुड़ा, लुप्तप्राय लोक विधा पर रंगनिर्देशक आतमजीत सिंह ने रखे विचार

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लखनऊ॥ हमारे देखते-देखते कितना कुछ विलुप्त हुआ है पर वक्त के साथ चीजें। बदलती ही हैं, इसमें कोई हर्ज नहीं। नौंटकी और लोक परम्पराएं इतनी मुक्त होती हैं कि उनमें हम कहीं से कुछ अपना सकते हैं। कुछ खो रहा है तो कुछ जुड़ भी रहा है इन विधाओं में। नौंटकी के विधाओं के परम्परागत कलाकारों और आधुनिक रंगमंच के जानकार अगर अकादमिक तौर पर किसी संस्थान के माध्यम से नौटंकी की टेªनिंग दें तो इस तरह हम इस विधा में बहुत कुछ संरक्षित करने के साथ, बहुत कुछ नया भी हासिल कर सकते हैं।

Atmajit Singh

कुछ ऐसे ही उद्गार नौटंकी से जुड़े प्रयोगशील रंगनिर्देशक आतमजीत सिंह ने यहां उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी सभागार गोमतीनगर में आज दोपहर अभिलेखागार रिकार्डिंग कराते हुए व्यक्त किये। यहां वर्तमान परिदृश्य और नौटंकी विषय पर उनका साक्षात्कार प्रख्यात लेखक विजय पण्डित ले रहे थे। यह कार्यक्रम अकादमी फेसबुक पेज पर संस्कृति प्रेमियों के लिए लाइव चल रहा था।

चर्चा के आरम्भ में अकादमी के सचिव ने वक्ताओं और अकादमी फेसबुक पेज पर लाइव चल रहे कार्यक्रम में दर्शकों श्रोताओं का स्वागत करते हुए कहा कि हमें अपनी संस्कृति की जड़ों को संरक्षित करने की आवश्यकता है। यह कार्यक्रम उसी क्रम की एक कड़ी है। इसे संपादित करके यू-ट्यूब मंे भी डाला जाएगा।

जवाबों में आतमजीत सिंह ने कहा कि नैंटकी जैसी लोकविधाओं की तालीम गुरु-शिष्य परम्परा मे ही बेहतर ढंग से दी जा सकती है। उसमें निरंतरता बनी रहे, लिहाजा इसके लिए संस्थान की जरूरत भी महत्वपूर्ण है। आज के दौर में लोकविधाओं को लेकर आधुनिक रंगमंच के लोगों की रुचि बढ़ रही है और मैं इस विधा को लेकर आशान्वित हूं।

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जिस तरह कर्नाटक में यक्षगान को लेकर शिवराम कांरथ ने काम किया या दक्षिण में कोडिआट्टम जैसी विधा में जो काम हुआ, उसे हम ऐसी विधाओं के संरक्षण के उदाहरण के तौर पर देख सकते हैं। नौंटकी छंदों के अपनी शैली के गायन उद्धहरण सामने रखते हुए उन्होंने बताया कि भारतेंदु नाट्य अकादमी के निदेशक राज बिसारिया ने शुरुआती वर्षों में गिर्राजप्रसाद कामा जैसे विशेषज्ञ नौटंकी कलाकारों को लेकर सत्यवान सावित्री जैसी नौटंकी तैयार कर नौटंकी रंगप्रयोग की उत्कृष्ट बानगी सामने रखी परंतु सिलसिला टूट गया।

अगर निरंतरता बनी रहती तो आशातीत परिणाम होते। कामा, गुलाबबाई जैसे परम्परागत कलाकारों के कार्य के साथ नौंटंकी लेखन में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के बकरी, मुद्राराक्षस के आला अफसर व डाकू, उर्मिलकुमार थपलियाल की नई नवेली नौटंकी व हरिश्चन्नर की लड़ाई, सुशाील कुमार सिंह की दूरदर्शन व विनोद रस्तोगी व उर्मिलकुमार की रेडियो के लिए लिखे छोटों नौटंकी प्रयोगों की चर्चा करते हुए कहा कि बकरी से नौटंकी आधुनिक रंगमंच के साथ जुड़ी ।

इन लेखकीय प्रयोगों के मंगलाचरण के उदाहरण रखते हुए उन्होंने बताया कि इनकी शुरुआत ही दर्शको को अपने साथ जोड़ लेती है। इनमे तत्कालीन समाज और परिस्थितियों की आहट स्पष्ट दिखाई देती है। मैंने भी छह वर्ष पहले रूहानी प्रेम या सूफीवाद का संदेश देती लैला मजनू नौटंकी पर काम करते हुए उसे आतंकवाद की मौजूदा परिस्थितियों से जोड़ा था। अपने वक्तव्य में उन्होंने इस लोक विधा से जुड़े अन्य पहलुआंे पर भी विस्तार से प्रकाश डाला। फेसबुक के जीवंत प्रसारण में अनेक कलाप्रेमियों ने इस वार्ता को सुना और देखा।

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