कोलकाता॥ वेस्ट की ममता बनर्जी सरकार पर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के आरोप लगते रहे हैं। इसकी वजह यह है कि बंगाल में TMC के सत्ता में आने के बाद से अल्पसंख्यकों को संतुष्ट करने पर विशेष ध्यान दिया जाता रहा है। वोट बैंक के नजरिए से वाममोर्चा के शासनकाल में भी अल्पसंख्यक महत्वपूर्ण हुआ करते थे किंतु राजनीतिक तौर पर उन्हें उतनी अहमियत नहीं मिलती थी जितनी पिछले एक दशक के दौरान मिलती रही है।
देश में मुस्लिमों की सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति का आकलन करने के लिए 2005 में गठित सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को तत्कालीन बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार ने सिरे से नकार दिया था। इस संबंध में वाम सरकार का कहना था कि कमेटी की रिपोर्ट में बंगाल में मुस्लिमों को सरकारी नौकरी में भागीदारी के आंकड़ों को सही तरीके से नहीं रखा गया।
आंकड़ों की मानें तो 2006 में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट प्रकाशित होने के दौरान वेस्ट में सात प्रतिशत ओबीसी आरक्षण हुआ करता था। उस वक्त मुस्लिम समुदाय के सिर्फ नौ समूहों को ओबीसी श्रेणी में जगह मिली थी, जो वक्त के साथ कई गुना बढ़ चुका है। वर्तमान में ओबीसी की (ओबीसी-ए तथा ओबीसी-बी) दो श्रेणियों में अल्पसंख्यक समूहों की भरमार है।
हिन्दुस्थान समाचार ने कुछ विशेषज्ञों से बातचीत कर प्रदेश में चल रहे तुष्टीकरण के होड़ की तस्वीर स्पष्ट करने की कोशिश की है। जाने-माने शिक्षाविद एवं पूर्व उपकुलपति डॉ. अचिंत्य विश्वास ने हिन्दुस्थान समाचार से बातचीत में आरक्षण के स्थायीकरण का उल्लेख करते हुए कहा कि शुरुआत में जब नौकरी में आरक्षण की पद्धति शुरू हुई थी, तब यह तय हुआ था कि एक निर्दिष्ट समयसीमा के लिए यह अवसर प्रदान किया जाएगा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता एवं अध्यापक डॉक्टर रंजन बनर्जी स्वस्थ प्रतियोगिता के बजाए आरक्षण को तरजीह दिये जाने पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि लोकतांत्रिक राष्ट्र में निर्वाध एवं स्वस्थ प्रतियोगिता की परंपरा रही है। आरक्षण के जरिए प्रतियोगिता की मूल भावना पर कुठाराघात करना राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में अवरोधक साबित हो रहा है।
फिर भी पांच हजार से अधिक जातियों-जनजातियों तथा वर्ण आधारित हिंदू समाज के एक बड़े तबके के सामाजिक व आर्थिक विकास एवं समान अवसर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से संविधान निर्माताओं ने सीमित अवधि के लिए आरक्षण का विकल्प रखा था।पिछले एक दशक से जात-पात के बजाए आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों को आरक्षण देने की बात सुनी जा रही है। ऊंची जातियों के गरीब लोगों को आरक्षण देने की व्यवस्था उसी सोच का प्रतिफल है।
अध्यापक एवं शोधकर्ता डॉक्टर रंजन बनर्जी तुष्टीकरण की प्रवृत्ति को सामाजिक समरसता के लिए खतरा बताते हुए कहते हैं कि वास्तव में संविधान को दरकिनार कर अप्रत्यक्ष रूप से मुस्लिम समुदाय का वोट हासिल करना ही सबसे बड़ा लक्ष्य बन चुका है। अन्य सारे मुद्दे गौण हो चुके हैं।
इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह है कि इससे हिंदू समाज से इस्लाम अथवा क्रिश्चियन धर्मों में धर्मांतरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है। एक उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि वेस्ट में स्नातक, प्रथम वर्ष में पढ़ने वाले अनुसूचित जाति के हिंदू छात्र की तुलना में समकक्ष अल्पसंख्यक छात्र को तीन गुना अधिक वित्तीय लाभ मिल रहा है। ऐसे में सामाजिक समानता का सांविधानिक लक्ष्य कैसे पूरा होगा?