अजब-गजब॥ इस्लाम कैलेंडर का सबसे पवित्र माह-ए-रमजान शुरू हो गया। बाजार सज चुके हैं, कोरोना प्रोटोकॉल का पालन करते हुए सेहरी और इफ्तार की जमकर खरीददारी हो रही है। मस्जिदों में सोशल डिस्टेंस का पालन करते हुए नमाज अदा की जा रही है।
ये पवित्र महीना हम सबको नेकियों, आत्मसंयम और आत्मनियंत्रण का अवसर और पूरी मानव जाति को प्रेम, करुणा और भाईचारे का संदेश देता है। नफरत और हिंसा से भरे इस दौर में रमजान का संदेश पहले से और ज्यादा प्रासंगिक हो चला है। रोजा बन्दों को जब्ते नफ्स अर्थात कंट्रोल करने की तरबियत देता है और उनमें परहेजगारी अर्थात आत्मसंयम पैदा करता है।
हम सब शरीर और रूह दोनों के समन्वय के परिणाम हैं। आम तौर पर हमारा जीवन जिस्म की जरूरतों भूख, प्यास, शारिरिक सुख आदि के गिर्द घूमता है। रमजान का महीना दुनियावी चीजों पर नियंत्रण रखने की साधना है। रोजे में परहेज, आत्मसंयम और जकात का मकसद यह है कि आप अपनी जरूरतों में थोड़ी-बहुत कटौती कर समाज के अभावग्रस्त लोगों की कुछ जरूरतें पूरी कर सकें।
रोजा केवल मुंह और पेट का ही नहीं, आँख, कान, नाक और जुबान का भी होता है। ये सदाचार और पाकीजगी की शर्त है। रमजान रोजादारों को आत्मावलोकन और खुद में सुधार का मौका देता है। दूसरों को नसीहत देने के बजाय अगर हम अपनी कमियों को पहचान कर उन्हें दूर कर सकें तो हमारी दुनिया ज्यादा मानवीय होगी।
रमजान के महीने को तीन हिस्सों या अशरा में बांटा गया है। महीने के पहले दस दिन ‘रहमत’ के हैं, जिसमें अल्लाह रोजेदारों पर रहमतों की बारिश करता है। दूसरा अशरा ‘बरकत’ का है, जब अल्लाह रोजेदारों पर बरकत नाजिल करता है। रमजान का तीसरा अशरा ‘मगफिरत’ का है जब अल्लाह अपने बंदों को गुनाहों से पाक कर देता है।