
New Delhi. हिमाचल प्रदेश के जिला कांगड़ा के बैजनाथ में दशहरा नहीं मनाए जाने की बात तो आपने सुनी होगी। ठीक उसी तरह इसी जिले में एक गांव ऐसा भी है, जहां दीपावली का त्यौहार नहीं मनाया जाता है। न इस गांव में पटाखों की गूंज होती है और न ही दीपमाला और न ही मिठाई बांटने की कोई रिवाज। सामान्य दिनों की तरह ही यहां रात को सन्नाटा ही पसरा होता है।
धीरा उपमंडल के सुलह के साथ लगती सिहोटु पंचायत के गांव अटियाला दाई में दीपावली का पर्व नहीं मानाया जाता है। यहां अंगारिया जाति के परिवार रहते हैं। ये लोग एक बुजुर्ग के वचन का सम्मान करते हुए कई सालों से दीवाली के दिन किसी उत्सव का आयोजन नहीं करते। गांव के लोगों व इन लोगों का कहना है कि वर्षों पूर्व अंगारिया समुदाय का एक बुजुर्ग कुष्ठ रोग की चपेट में आ गया था। उस समय चिकित्सा के अभाव के चलते कई लोग इस रोग के घेरे में आने लगे और यह सिलसिला बढ़ता ही रहा।
उस समय एक बाबा ने इस रोग को जड़ से मिटाने की रास्ता सुझाया था, इसके बाद रोग की जकड़ में आए समुदाय के एक बुजुर्ग ने अपनी भावी पीढ़ी को बचाने के लिए एक प्रण लेते हुए भू समाधि ले ली थी। दीवाली वाले दिन एक गड्डा खुदवाकर उस बुजुर्ग ने हाथ में दीया लेकर समाधि ले ली। इस बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, लेकिन गांव के लोग अब भी इस बात का ही जिक्र करते हैं। सबका कहना है कि कई सालों से वे अपने बुजुर्गों से इस बात को सुनते आ रहे हैं।
दीपावली के दिन बुजुर्ग की मौत के कारण उस समय के बुजुर्गों ने समुदाय की भावी पीढ़ी कभी को भविष्य में दीवाली न मनाने के लिए मना किया और कहा कि यदि ऐसा न किया तो इस कुल के लोग फिर से इस चपेट में आ जाएंगे। तभी से इस समुदाय के लोग दीवाली का त्योहार नहीं मनाते हैं और बुजुर्ग को दिए गए वचन की आन रखे हुए हैं।
अन्य जगह पर बसने पर भी निभा रहे वचन
अटियाला दाई गांव के अंगारिया समुदाय के बुजुर्ग प्रीतम चंद, रमेश चंद, विजय अंगारिया, प्यार सिंह, अमर पाल अंगारिया, बली राम अंगारिया, राजेंद्र कुमार व पूर्व पंचायत प्रधान सोनू अंगारिया बताते हैं कि अंगारिया जाति के लोग सबसे पहले पालमपुर के ही धीरा नौरा गांव के पास के गांव कोटा में रहते थे, जहां से उठकर इस समुदाय के कुछ लोग अटियाला दाई, मंडप, बोधल सहित धर्मशाला में बस गए हैं लेकिन यह सब अपने अपने घरों में इस त्योहार को नहीं मनाते हैं।
उन्होंने बताया कि कोटा गांव में अभी भी अंगारिया जाति के 25 से 30 परिवार रहते हैं। बुजुर्ग बताते हैं कि उन्हें इतिहास नहीं पता कि कब यह हुआ लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी यह प्रथा कायम रखने में यह समुदाय वचनवद्ध है।