चाहे मानव हो या पशु- पक्षी; सभी को मुसीबत में मां ही याद आती है; पिता कभी याद नहीं आते। हम खुशियों में भले ही मां को भूल जाएँ लेकिन ठोकर लगने पर या मुसीबत की घड़ी में माँ ही याद आती है; क्योंकि वो माँ ही होती है। मां अमूर्त रूप में हमेशा हमारे साथ रहती है। मां अपनी संतान से कितनी भी दूर क्यों न हो; वह अपनी संतान की संवेदनाओं की अनुभूति करती रहती है। उसे यह गुण प्रकृति से मिला है। इसी संवेदना शक्ति के कारण कष्ट पड़ने पर मुंह से स्वतः मां शब्द निकलता है।
लोक में एक कथा प्रचलित है- एक दुष्ट पुत्र ने अपनी मां की हत्या कर उसका कलेजा निकाल कर बेचने जा रहा था । रास्ते में उसके पैर में काँटा गड गया। काँटा गाड़ते ही मां के कलेजे से आवाज आई- अरे बेटा? अब बेटे को अपने पाप की अनुभूति होने लगी और वह जोर जोर से रोने लगा। इस पर मां के कलेजे से आवाज आई कि बेटा तू रो मत। तेरा रोना मुझसे सुना नहीं जाता। इस कहानी का मतलब यह है कि पुत्र किता भी पथभृष्ट हो जाए लेकिन उसके पार्टी माँ के प्यार में कमी नहीं आती।
वास्तव में मां ममता की सागर होती है। जब वह बच्चे को जन्म देकर बड़ा करती है तो उसे इस बात की खुशी होती है कि उसके लाड़ले पुत्र-पुत्री से अब सुख मिल जाएगा। लेकिन माँ की इस ममता को नहीं समझने वाले बच्चे यह भूल बैठते हैं कि इनके पालन-पोषण के दौरान इस माँ ने कितनी कठिनाइयां झेली होगी। हालांकि मुसीबत के समय बच्चों को अपनी गलती का अहसास होता है।
संस्कृत साहित्य में मां का बखान इस रूप में हुआ है –
“पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः। मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।”
अर्थात : पृथ्वी पर जितने भी पुत्रों की माँ हैं, वह अत्यंत सरल व सहज रूप में होती हैं। वे अपने पुत्रों पर शीघ्रता से प्रसन्न हो जाती हैं। वह अपनी समस्त खुशियां पुत्रों के लिए त्याग देती हैं, क्योंकि पुत्र कुपुत्र हो सकता है, लेकिन माता कुमाता नहीं हो सकती।