मायावती की सोच से आगे निकल चुकी है दलितों की नई पीढ़ी, विकल्पों की कमीं नहीं

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लखनऊ। क्या बहुजं समाज पार्टी अवसान की ओर अग्रसर है? बीएसपी सुप्रीमो मायावती द्वारा गत दिनों दो पुराने वफादारों लालजी वर्मा और राम अचल राजभर को पार्टी से निष्कासित करने के बाद ये सवाल मौजू है। हालांकि मायावती अपनी धुन में मस्त हैं। वह अलग तरह की राजनीति करती हैं। शायद उन्हें गलतफहमी है कि कम से कम उत्तर प्रदेश का दलित तबका आज भी सिर्फ उन्हीं पर भरोसा करता है। दलित मतदाता सिर्फ हाथी का ही बटन दबाता है।

मायावती की ये सोच सब अब गुजरे जमाने की बातें हो गई हैं। आज दलित तबके के सामने विकल्पों की कमीं नहीं है। पूरब में ओम प्रकाश राजभर का तेजी से उभार हुआ है तो पश्चिम में चंद्रशेखर आजाद रावण दलितों की पहली पसंद बन चुके हैं। मध्य यूपी और बुंदेलखंड में भी नया दलित नेतृत्व उभरा है।

दरअसल, दलितों की नई पीढ़ी की सोच ‘जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ की सोच से कहीं आगे निकल चुकी है। दलितों नई पीढ़ी नेतृत्व के लिए उतावली है। नई सदी का पढ़ा-लिखा दलित नौजवान अपनी सोच पर अमल की आकांक्षा रखता है। वह नारे लगाने के साथ सभा को संबोधित भी करना चाहता है। वह नेतृत्व से सवाल करने और सलाह देने का हिमायती है। जाहिर है कि मायावती के रहते ये सब बीएसपी में संभव नहीं है।

उल्लेखनीय है कि बीएसपी सुप्रीमो मायावती का मिजाज सेना के कमांडर जैसा है। पार्टी में रहकर उनके आदेशों की अवहेलना करने की कोई सोच भी नहीं सकता। किसी भी नेता या विधायक को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाना उनके लिए बाएं हाथ का खेल है। बीएसपी के जिस भी नेता ने उन्हें सलाह देने की हिम्मत की उसे पार्टी से बाहर होने में देर नहीं लगी। यही वजह है कि किसी भी पार्टी के साथ बीएसपी का गठबंधन अधिक दिनों तक नहीं चल सका।

कांशीराम की राजनीतिक उत्तराधिकाई बनने के बाद मायावती ने एक-एक कर बीएसपी के सभी पुराने नेताओं बरखुराम वर्मा, आरके चौधरी, सोनेलाल पटेल, ओम प्रकाश राजभर, जंग बहादुर पटेल, नसीमुद्दीन सिद्दीकी आदि नाताओं को पार्टी से निकाल दिया। इन सभी नेताओं के दम पर ही बीएसपी का उभार हुआ था। इसके बाद भी मायावती द्वारा पार्टी के वफादारों को पार्टी से निष्कासित किया जाता रहा।

इसी के साथ बीएसपी सुप्रीमों ने अपने भाई और भतीजे को भी पार्टी में स्थापित कर दिया। अब मायावती बीएसपी के मेन्द्र में हैं और बचे-खुचे नेता उनकी परिक्रमा कर रहे हैं। दलितों की इस पार्टी में अब मायावती के बाद सिर्फ सतीश मिश्रा की ही चलती है। ये बात दलितों को खासतौर से खलती है।

इन परिस्थितियों में राजनीति के जानकार बीएसपी के अवसान की बातें करने लगे हैं। हालांकि कई दलित चिंतक ऐसी संभावना को खारिज करते हैं। उनका कहना है कि आज बीएसपी सर्वजन की पार्टी बन चुकी है। समाज के हर तबके के लोग मायावती की सरकार को अन्य सरकारों से बेहतर मानते हैं। अगले साल होने वाले यूपी विधानसभा चुनव में मायावती के नेतृत्व में बीएसपी कामयाबी की कहानी फिर दोहराएगी।

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