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लखनऊ।। मानव विकास को धार्मिक-व्यवस्था के रूप में जन-जीवन से जोड़ने वाले आदि-शिल्पी भगवान विश्वकर्मा पूजा के अवसर पर कल शनिवार 17 सितम्बर पर उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरा देश श्रद्धा के समंदर में गोते लगायेगा।
लखनऊ, कानपुर, मुरादाबाद, भदोही, वाराणसी, बरेली और इलाहाबाद समेत राज्य भर में विश्वकर्मा पूजा के लिये तैयारियां पूरे शवाब पर हैं। पूजा भंडारों में पूजन-सामग्री के लिये लोगों की कतारें लगी हुयी थी वहीं फल और मिठाइयों की दुकानों में आम दिनों की अपेक्षा आज ज्यादा भीड़-भाड़ दिखी। कारखानो और प्रतिष्ठानों में सजावट को अंतिम रूप दिया जा रहा है। वहीँ साप्ताहिक-अवकाश का दिन होने के कारण कई प्रतिष्ठानो में विशेष रूप से कर्मचारियों को आमंत्रित किया गया है।
हिंदू धर्म-ग्रंथों में यांत्रिक, वास्तुकला, धातुकर्म, प्रक्षेपास्त्र-विद्या, वैमानिकी-विद्या का अधिष्ठाता विश्वकर्मा को माना गया है। मान्यताओं के अनुसार विश्वकर्मा ने मानव को सुख-सुविधाएं प्रदान करने के लिए अनेक यंत्रों व शक्ति-संपन्न भौतिक साधनों का निर्माण किया। माना जाता है कि प्राचीन समय में स्वर्ग-लोक, लंका, द्वारिका और हस्तिनापुर जैसे नगरों के निर्माणकर्ता भी विश्वकर्मा ही थे।
मान्यता है कि विश्वकर्मा ने ही इंद्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पांडवपुरी, सुदामापुरी और शिवमंडलपुरी आदि का निर्माण किया। पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुएं भी इनके द्वारा निर्मित हैं। कर्ण का कुंडल, विष्णु का सुदर्शन चक्र, शंकर का त्रिशूल और यमराज का काल-दंड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भी भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है।
एक कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम नारायण अर्थात् विष्णु भगवान क्षीर सागर में शेष-शय्या पर आविर्भूत हुए। उनके नाभि-कमल से चतुर्मुख ब्राहृा दृष्टिगोचर हो रहे थे। ब्राहृा के पुत्र ‘धर्म” तथा धर्म के पुत्र ‘वास्तुदेव” हुए। कहा जाता है कि धर्म की ‘वस्तु” नामक स्त्री से उत्पन्न ‘वास्तु” सातवें पत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि-प्रवर्तक थे। उन्हीं वास्तुदेव की ‘अंगिरसी” नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए थे। अपने पिता की भांति ही विश्वकर्मा भी आगे चलकर वास्तु-कला के अद्वितीय आचार्य बने।
भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप बताए जाते हैं। उन्हें कहीं पर दो बाहु, कहीं चार, कहीं पर दस बाहुओं तथा एक मुख और कहीं पर चार मुख व पंचमुखों के साथ भी दिखाया गया है। उनके पांच पुत्र मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ हैं। मान्यता है कि ये पांचों वास्तुशिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थे और उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार भी वैदिक काल में किया। इस प्रसंग में मनु को लोहे से, तो मय को लकड़ी, त्वष्टा को कांसे एवं तांबे, शिल्पी ईंट और दैवज्ञ को सोने-चांदी से जोड़ा जाता है।
हिंदू धर्मशास्त्रों और ग्रथों में विश्वकर्मा के पांच-स्वरूपों और अवतारों का वर्णन मिलता है। विराट विश्वकर्मा को सृष्टि का रचयिता, धर्मवंशी विश्वकर्मा को शिल्प-विज्ञान विधाता, प्रभात पुत्र अंगिरावंशी विश्वकर्मा को आदि विज्ञान विधाता, वसु पुत्र सुधन्वा विश्वकर्मा को विज्ञान के जन्मदाता (अथवी ऋषि के पौत्र) और भृंगु-वंशी विश्वकर्मा को उत्कृष्ट शिल्प-विज्ञानाचार्य (शुक्राचार्य के पौत्र) माना जाता है।
हालांकि इस विषय में कई भ्रांतियां हैं। बहुत से विद्वान विश्वकर्मा नाम को एक उपाधि मानते हैं, क्योंकि संस्कृत साहित्य में भी समकालीन कई विश्वकर्माओं का उल्लेख है।
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