उत्तराखंड- जनाब चुनाव भी तो लड़ना है, इसलिए उठाया गया ये कदम

img

देहरादून ।। CORONA__VIRUS की वजह से लॉकडाउन के बीच हाल ही में मोदी सरकार ने मंत्रियों व सांसदों के वेतन-भत्तों में 30 फीसद तक कटौती के साथ ही सांसद निधि दो साल तक स्थगित रखने का निर्णय लिया। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड की BJP सरकार ने तुरंत इसे अपने यहां भी लागू करने का फैसला कर डाला, लेकिन उत्तराखण्ड सरकार ने इस मामले में थोड़ा हटकर रास्ता पकड़ा।

विधायक निधि दो साल के लिए पूरी तरह स्थगित करने की बजाए सरकार ने इसमें प्रतिवर्ष 1-1 करोड़ की धनराशि की कटौती करने का फैसला किया। उत्तराखण्ड में प्रत्येक MLA को हर साल 3.75 करोड़ रुपये विधायक निधि के रूप में मिलते हैं। यानी, अब भी प्रत्येक विधायक को 2.75 करोड़ रुपये हर साल मिलेंगे। पता नहीं कितनी सच है या गलत, अब सियासी गलियारों में चर्चा है कि ऐसा सरकार को दो साल बाद होने वाले विधानसभा इलेक्शन के कारण करना पड़ा है।

सीएम ने कोरोना संक्रमण से निबटने के लिए सभी मंत्रियों को भिन्न-भिन्न जनपदों का प्रभार सौंपा। इन्हें जिम्मेदारी दी गई जिलों में आम जनता को राहत देने को किए जा रहे कार्यो की मॉनीटरिंग की। कुछ ने इसे खासी गम्भीरता से लिया, लेकिन कुछ इस चक्कर में ओवर एक्सपोजर के शिकार हो गए। जनजागरण के नाम पर ऐसे काम करते हुए सोशल मीडिया में दिखे कि हंसी के पात्र बन गए। उधर, कुछ ऐसे भी रहे, जिन्होंने घर से निकलना तक गवारा नहीं किया।

पढ़िए-दर्दनाक- फौजी बेटा दूसरे राज्य में फंसा, मां की दवा न मिलने से मौत

सरकार के एक अच्छे प्रयास को पलीता लगते देर नहीं लगी। नतीजतन, इसके बाद फरमान जारी करना पड़ा कि मंत्री अब अपने घरों से ही प्रभार वाले जिलों में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग या ऐसे ही ऑनलाइन निगरानी रखेंगे। यानी, सुरक्षित शारीरिक दूरी कायम रखते हुए अपना काम करेंगे। इससे मंत्रीजी ने तो राहत की सांस ली ही है, साथ ही सरकार भी असहज हालात से बच गई।

अर्से से हाशिए पर चल रहे नेताजी इन दिनों परेशान हैं। इसकी ताजा वजह है लॉकडाउन, जिस कारण वह जंगलों पर अधिकार को लेकर शुरू किए आंदोलन की वर्षगांठ नहीं मना पाए। इसका उन्हें कितना मलाल रहा, यह इससे साबित होता है कि सोशल मीडिया में खुद ही इंटरव्यू टाइप पोस्ट डाल दी।

सही समझे आप, ये नेताजी हैं कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय। सात अप्रैल 2018 को उन्हें वन विश्रमगृह में बैठकर याद आया कि अरण्यजनों को उनके हकों दिलाने को संघर्ष किया जाना चाहिए। हालांकि, यह बात अलग है कि उनका यह आंदोलन सिर्फ जुबानी बात तक ही सीमित है।

इसी के बूते वह अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की जिद्दोजहद में जुटे हैं। असल में 2017 में उन्हें अपनों ने ही हाशिए पर धकेलने में कसर नहीं छोड़ी। इससे उबरने को वनाधिकार आन्दोलन की शुरुआत की, लेकिन इसमें भी अपनों का साथ नहीं मिल पाया है।

Related News